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समाज

शिनजियांग कपास, बंधुआ मजदूरी, और चीन का “जनवादी गणराज्य”

राहुल मिश्र
१८ दिसम्बर २०२०

चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगुर मुसलमानों पर दमन और बंधुआ मजदूरी के आरोपों के चलते अमेरिका ने चीन के शिनजियांग प्रांत से आयात किए जा रहे कपास या उसके कपास से बने कपड़ों का देश में इस्तेमाल बंद करने का निर्णय लिया है.

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तस्वीर: picture alliance / Photoshot

जुलाई 2020 में भी शिनजियांग प्रोडक्शन एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी पर ग्लोबल मैगनित्सकी प्रतिबंध लगाए  गए थे और उस समय भी यह बातें उठाई गई थीं. जुलाई के बाद सितंबर 2020 में भी अमेरिका के निचले सदन ने उइगुर फोर्स्ड लेबर प्रिवेन्शन एक्ट भारी बहुमत से पास किया था. हालांकि सीनेट को इस पर अभी फैसला लेना बाकी है लेकिन इस एक्ट के बनने के बाद चीन पर काफी दबाव बनेगा. दिसम्बर के शुरू में उठाए गए नए कदम के दूरगामी परिणाम होंगे. अमेरिकी सरकार पूरे शिनजियांग से आने वाले कपास पर प्रतिबंध लगाने की सोच रही है तो वहीं चीन भी इस पर चुप नहीं बैठेगा. मामला लाखों डॉलर के कारोबार का है.

अमेरिकी कस्टम और सीमा सुरक्षा एजेंसी के प्रतिनिधि ने कहा है कि उसने "विदहोल्ड रिलीज ऑर्डर” के तहत शिनजियांग से बनकर आने वाले कपास और इससे जुड़े उत्पादों पर रोक लगा दी है. शिनजियांग से आने वाला ज्यादातर कपास और कपड़े शिनजियांग प्रोडक्शन एंड कंस्ट्रक्शन कम्पनी से ही बन कर आते हैं. चीन के कुल कपास और वस्त्र निर्यात में भी इसका एक तिहाई हिस्सा है. इस कंपनी पर आरोप है कि उसने शिनजियांग के री-एजुकेशन कैंपों में जबरन बंदी बना कर रखे गए 10 लाख से अधिक उइगुर लोगों को गुलाम बना कर उसे बंधुआ मजदूरी कराई है.

अंतरराष्ट्रीय कंपनियां और चीनी कपास

यह कंपनी सिर्फ अमेरिका को ही आपूर्ति नहीं करती. जापान की एक बड़ी कपड़ा कंपनी मूजी और यूनिक्लो भी शिनजियांग कपास का इस्तेमाल अपने कपड़ों में करती है. मूजी की दुनिया में 650 से ज्यादा रिटेल एजेंसियां हैं. मूजी की तरह की ही ना जाने कितनी कंपनियां दुनिया में हैं जो बुद्धिजीवी वर्ग की पसंदीदा हैं. लेकिन इन खबरों के आने के बाद यह सोचना लाजमी है कि  सतत विकास और नो ब्रांड पॉलिसी के नाम पर लाखों लोगों की गुलामी कहां तक जायज है.

इस खबर के आते ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति के तमाम टिप्पणीकारों ने अमेरिकी सरकार के इस निर्णय को  राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की चीन से तकरार से जोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लिया. जाहिर तौर पर यही बात चीनी सरकार को भी कहना था. चीनी सरकार ने कहा कि शिनजियांग के लोग अपनी स्वेच्छा से अपने रोजगार चुनते हैं और री-एजुकेशन कैम्प में "स्वेच्छा” से "पुनर्शिक्षित” हो रहे उइगुर लोग इस तरह के किसी काम में नहीं लगे हैं.

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शिनजियांग का कपासतस्वीर: picture-alliance/ dpa

यह बात अमेरिका और चीन की आपसी खींचतान और आरोप प्रत्यारोपों तक ही सीमित नहीं है. संयुक्त राष्ट्र ने भी कहा है कि इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि चीन ने 10 लाख से अधिक उइगुर मुसलमानों को वोकेशनल ट्रेनिंग और री-एजुकेशन के नाम पर बंदी बना रखा है. इस आरोप पर भी चीन का कहना है कि ना तो इतने ज्यादा लोग कैंपों में हैं, ना ही उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है, और ना ही उनसे बंधुआ मजदूरी कराई जा रही है. संयुक्त राष्ट्र संघ के पास चीन के खिलाफ बातें कहने की कोई खास वजह नहीं दिखती और सैटेलाइट से ली गयी तस्वीरों और जमीन पर बनी इमारतों और उनमें रह रहे लोगों की मैपिंग से इस बात की पुष्टि हो चुकी है.

सप्लाई चेन में चीनी कपास की शिनाख्त

अमेरिका के प्रतिबंध लगाने के बाद शायद दूसरे देश भी इस तरफ कदम बढ़ाएं लेकिन यह काम इतना सीधा नहीं, जितना लग रहा है. जब तक चीन की सरकार खुद नहीं बताती, तब तक अमेरिका या किसी भी सरकार के लिए यह पकड़ना मुश्किल होगा कि चीनी कपास शिनजियांग का है या नहीं. सप्लाई चेन में चीन से जुड़े बड़े-बड़े ब्रांड्स जैसे मूजी, ऊनिक्लो, जारा, हूगो बॉस, ब्रुक्स ब्रदर्स और एसपिरिट के लिए यह पकड़ना मुश्किल होगा कि कपड़ों के लिए कच्चा माल कहां से आया. ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों की कई कंपनियों के कपड़े बांग्लादेश और वियतनाम में बनते हैं. अमेरिकी प्रतिबंध के बाद भी शिनजियांग के कपास को इन देशों में निर्यात किया जा सकता है और लगता यही है कि यह आपूर्ति बेरोकटोक जारी रहेगी.

पिछले कुछ दशकों में तियानमेन स्क्वैयर की घटना और सैकड़ों तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं के स्वायत्तता और मानवाधिकारों के लिए आत्मदाह चीनी जनवादी गणतंत्र पर सवालिया निशान लगाते रहे हैं. लेकिन पिछले दो-तीन साल में मानवाधिकारों को लेकर चीनी सरकार के रवैये में बहुत परिवर्तन आया है. मानवाधिकार और नस्लवादी हिंसा के मामलों ने चीन की साख को भी गिराया है. इस कड़ी में सबसे ताजा और शायद तिब्बत के बाद अब तक का सबसे भयानक उदाहरण है शिनजियांग में उइगुर लोगों पर हो रहा दमन.

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उइगुरों के लिए वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटरतस्वीर: Reuters/T. Peter

पहले से बहुत मजबूत है साम्यवादी चीन

1989 की तियानमेन स्क्वैयर की घटना या 2008 के चीनी ओलंपिक के दौरान तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं के आत्मदाह के समय भी चीन उतना मजबूत नहीं था जितना आज है. खास तौर पर 1990 के दशक में चीन को मानवाधिकार के मामले पर तमाम कड़ी आलोचनाएं सहनी पड़ीं थी. लेकिन आज ऐसा नहीं है. आज पूरी दुनिया और मानवाधिकारों के वकील, और तो और मुसलमानों के तरफदार चीन के मुस्लिम बहुल प्रांत शिनजियांग में उइगुर लोगों पर हो रहे अत्याचारों पर उफ तक करने से डर रहे हैं. जब चीन में दमनकारी ताकतों के खिलाफ समाजवादी क्रांति शुरू हुई थी, तब से लेकर 1949 में चीनी जनवादी गणतंत्र की स्थापना तक पूरी दुनिया का मानना था कि चीन सोवियत संघ या वैसा ही एक अवामी गणराज्य बनेगा. चीन में क्रांति के अगुआ और बहुसंख्य लोग ग्रामीण और मजदूर किसान ही थे.

लेकिन पिछले 70 वर्षों के चीनी इतिहास से साफ है कि चीन सोवियत संघ के रास्ते पर चलने, फिसलने और फिर उठने की कवायद से बहुत दूर निकल चुका है. इतना दूर कि जनवाद और साम्यवाद को परिभाषित करने में भी इसे अपने पैमाने ईजाद करने पड़े हैं. नतीजतन, आज हमें बौद्धिक बहस में ‘चीनी तरीके का साम्यवाद' और ‘चीनी शैली का जनवाद' जैसे जुमले देखने-सुनने को मिलते हैं. शिनजियांग के उइगुरों पर हो रहे जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां फिलहाल तो रुई की तरह उड़ते नहीं दिखते, लेकिन विडंबना यह है कि रुई ही उन पर सालों से होने वाले जुल्म का जरिया बन गयी लगती है.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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