संरक्षक नहीं सुविधा प्रदाता होगी सरकार
२९ अगस्त २०१७तीन साल के लिए तैयार इस अजेंडे में विकास की प्राथमिकताओं, अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे में बदलाव, आर्थिक सुधारों और मूलभूत आर्थिक लक्ष्यों का व्यापक विवरण है. साथ ही अर्थव्यवस्था के मौजूदा हाल और विकास की प्रमुख बाधाओं और समस्याओं पर गहरी चिंता प्रकट की गयी है. ये आयोग अपने पहले प्रमुख अरविंद पनगढ़िया की असमय विदाई के लिए भी जाना जाएगा. एक जनवरी 2015 को नीति आयोग के गठन के साथ ही केंद्र सरकार ने कथित रूप से विकास का नया मॉडल रखने और भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रांतिकारी रूपांतरण करने का दावा किया था. ये एक तरह से पंचवर्षीय योजना के नेहरूवादी मॉडल और मिश्रित अर्थव्यवस्था की विरासत का औपचारिक अंत था. हालांकि नियोजित विकास का वो मॉडल 1991 में लागू किये गये आर्थिक सुधारों के बाद से ही अप्रासंगिक हो चला था.
नीति आयोग के 200 पन्ने के मौजूदा ऐक्शन प्लान पर नजर डालें तो अर्थव्यवस्था का शायद ही कोई क्षेत्र इससे अछूता है. इसमें अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों का रेखांकन है, चिंताएं हैं और सुझाव हैं. लेकिन उसके लिये कोई योजनाबद्ध परियोजना नहीं बनायी गयी है. मसलन उच्च शिक्षा में सुधार पर जोर देते हुए कहा गया है कि देश में विश्वस्तर के 20 विश्वविद्यालय बनाने, शोध प्रणाली और नियामक प्रक्रिया में सुधार और कौशल आधारित और पेशेवर शिक्षा को बढ़ावा देना होगा. स्वायत्तता और पारदर्शिता पर भी खासा जोर है. लेकिन हाल के दिनों में विश्वविद्यालयों और संस्थानों में जो घटनाएं घटी हैं, उससे स्पष्ट है कि वास्तविकता कुछ और है. इन संस्थानों में संघ के वैचारिक हस्तक्षेप दिखने लगे हैं. मिसाल के लिए आईआईटी दिल्ली में पंचगव्य पर 50 से ज्यादा शोध प्रस्तावों का आना, सभी आईआईटी में "देशभक्ति” रॉक बैंड बनाने की कवायद, जेएनयू में पीएचडी दाखिले की प्रक्रिया में बदलाव, जेएनयू के वीसी का कैंपस में टैंक रखने का सुझाव, माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में गौशाला की स्थापना, विश्वविद्यालयों में संघ की पृष्ठभूमि वाले कुलपतियों की नियुक्ति आदि ऐसे कई मामले हैं, जिनसे पता चलता है कि नीति आयोग की कथित गंभीरता कहां जाकर ढेर हो रही है.
प्लान के अनुसार बेरोजगारी की समस्या विकट होती जा रही है, खास तौर पर अंडर एंप्लॉयमेंट या प्रच्छन्न बेकारी जिसमें लोग कम से कम पारिश्रमिक पर काम करने के लिये मजबूर हैं. उसके लिये नेशनल स्किल डेवलपमेंट मिशन को चाहिये कि वो 2020 तक कम से कम 80 प्रतिशत नौकरी सुनिश्चित करें क्योंकि अब तक सरकार के स्किल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट का अपेक्षित लाभ नहीं मिला है. मानव संसाधन को कुशल और पेशेवर बनाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि भारत अभी सिर्फ 2.3 फीसदी कामगार आबादी को ही कुशल बना पाया है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में ये प्रतिशत 55 से 65 फीसदी है.
भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी कृषि आधारित है जहां 50 प्रतिशत आबादी की आजीविका खेती से चलती है. लेकिन प्लान में यह सलाह दी गयी है कि खेती करने वालों को दूसरे लाभदायक काम करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए और साथ ही खेती को लाभकारी बनाया जाए. दोनों परस्परविरोधी बातें हैं. अगर आप कृषि को अपने विकास पैमाने के लिए अनफिट मान रहे हैं तो ये स्पष्ट कीजिए. लेकिन इससे पहले आपको ये जवाब तो देना होगा कि आखिर कृषि पर निशाना और किसान पर बोझ क्यों. किसान की जगह कॉरपोरेट को रखने का एजेंडा ही अगर विकास का सूत्र है, तो चिंताएं और सवाल भी स्वाभाविक हैं. अभी पिछले दिनों उत्तराखंड सरकार ने पहाड़ी राज्य मे जड़ीबूटी से जुड़ा एक अभूतूपूर्व करार पतंजलि के बाबा रामदेव के साथ किया है. ऐसा लगता है कि इसमें सरकार ने किसानों के संरक्षक की अपनी बुनियादी भूमिका से सरेंडर करते हुए पतंजलि को ही कमोबेश "नियामक संस्था” बना दिया है. और इस तरह के उदाहरण आपको और राज्यों में भी मिलेंगे.
प्लान में स्वास्थ्य से लेकर श्रम सुधारों में सुधार पर बल दिया गया है. अभी हाल ही में ऐसे सुधार किये गये हैं जिनको कॉरपोरेट हित में बताते हुए कड़ा विरोध किया गया. नये सुधारों की सिफारिश का क्या मकसद है? संसद में पहली बार ऐसा हुआ कि दूसरा या मध्य साल का आर्थिक सर्वेक्षण रखा गया. अगस्त में पेश इस सर्वेक्षण में कहा गया है कि साढ़े सात फीसदी से ऊपर का विकास लक्ष्य अव्यावहारिक है और देश में नोटबंदी के बाद रोजगार क्षेत्र में भी मंदी है. लेकिन इधर तीन साल के एजेंडा में इसकी कोई चर्चा नहीं है. जबकि नीति आयोग का प्लान अगले 15 वर्षों के लिये एक विजन डॉक्यूमेंट होने का दावा करता है, जिसमें तीन साल का ऐक्शन अजेंडा और सात वर्षों की स्ट्रैटेजी शामिल है. क्या तेजी से बदलते ग्लोबल परिदृश्य में 15 वर्षों का नियोजन संभव है? सिर्फ कुछ अलग दिखने की महत्त्वाकांक्षा में ये एक नियोजित विकास से दूसरे नियोजन की ओर जाने की कोशिश है या महज शब्दजाल है?
विदेशी निवेश और पीपीपी मॉडल की लगातार वकालत करते हुए सरकार अपनी जवाबदेही को न्यूनतम करने की ओर अग्रसर है. जब आर्थिक सर्वे से लेकर नीति आयोग की रिपोर्टें तक चुनौतीपूर्ण हालात बयान कर रही हैं तो फिर इस ऐक्शन अजेंडे के जरिये क्या बताने की कोशिश की जा रही है. क्या आप हाथ खड़े कर रहे हैं, भरोसा बनाये रखने के लिए आश्वस्त कर रहे हैं या जनता को ये आखिरी इशारा कर रहे हैं कि उनकी डगमगाती नाव का खेवैया अब कॉरपोरेट ही होगा?