सिर्फ मुंबई में मिलता है पीने का साफ पानी!
१९ नवम्बर २०१९पीने के पानी की गुणवत्ता को लेकर भारत सरकार की एजेंसी, ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टेंडर्डाईजेशन (बीआईएस) की एक ताजा जांच मे पता चला है कि दिल्ली में सप्लाई का पानी पीने के लायक बिल्कुल नहीं है. बीआईएस की ये रिपोर्ट शनिवार को उपभोक्ता मामलों के केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने जारी की. सबसे खराब हालत वाले पांच शहरों में दिल्ली के बाद चेन्नई, कोलकाता, जयपुर और देहरादून के नाम हैं.
दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने आरोप लगाया कि यह जांच फर्जी है और ऐन चुनाव के समय राज्य सरकार को बदनाम करने की कोशिश है. हालांकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का ये बयान, पलटवार के रूप मे तब आया जब मीडिया खबरों के मुताबिक केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन ने दिल्ली सरकार पर निशाना साधा था कि मुफ्त पानी के नाम पर दिल्ली के लोगों को "जहर” पीना पड़ रहा है.
यह जांच सप्लाई वाले पानी को लेकर की गई थी, यानी घरों में लगे नलों में आने वाला पानी. देश के 21 राज्यों की राजधानियों में हुए इस अध्ययन में सिर्फ मुंबई शहर के नलों का पानी ही सभी पैमानों पर खरा पाया गया.
दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई की हालत इतनी खराब पाई गई कि गुणवत्ता की जांच के 11 पैमानों में से इन शहरों का पेयजल 10 पैमानों पर फेल हो गया. अन्य 17 राजधानियों से प्राप्त नमूनों में भी निर्धारित मानक, इंडियन स्टैंडर्ड (आईएस)-10500:2012 की कमी पायी गई.
केंद्र सरकार का दावा है कि पाइप से आने वाले पानी की गुणवत्ता के उपाय कड़े करने में ये रिपोर्ट मददगार होगी. देहरादून, जयपुर, लखनऊ, गांधीनगर जैसे शहरों की स्थिति विकट पाई गई है. चेन्नई जैसे शहरों में लिए गए दस नमूने नौ मापदंडों पर फेल हो गए, ये मापदंड थेः गंदगी, गंध, कड़ापन, क्लोराइड, फ्लोराइड, अमोनिया, बोरोन और कोलिफॉर्म.
बीआईएस के मुताबिक पेयजल गुणवत्ता की जांच के तीसरे चरण में पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों और 100 स्मार्ट सिटी हैं जिनके नतीजे अगले साल जनवरी में आएंगें. चौथे चरण में देश के सभी जिला मुख्यालय होंगे, अगले साल अगस्त तक इनके नतीजे मिलेंगे.
हालांकि 1983 से चली आ रही यह कवायद आज भी आधीअधूरी दिखती है. पैमाने जस के तस हैं और नागरिकों की जिंदगियों से खिलवाड़ जारी है. लोगों को भी ये अंदाजा नहीं होता कि उन्हें मिलने वाली सेवाओं की गुणवत्ता पर खुद सरकार के ही सवाल हैं.
पेयजल आपूर्ति की समस्याओं से लेकर गुणवत्ता तक आखिरकार भुगतते आम लोग हैं और फायदा वे शक्तियां उठाती हैं जो किसी ना किसी तरह इस पूरे मामले में बाजार से जुड़ी हैं. एक से एक अत्याधुनिक, धुरंधर और नई प्रौद्योगिकी से सज्जित होने के विशाल दावों के साथ आरओ और फिल्टर मशीनों के विज्ञापनों से लेकर बिक्री तक का बाजार फलाफूला है.
खेल, फिल्म और मनोरंजन जगत की नामचीन शख्सियतें विज्ञापनों में इस या उस आरओ मशीन लेने की फरमाइशें करती देखी जा सकती हैं लेकिन क्या कारण है कि पीने के पानी को स्वच्छ, साफ और प्रदूषणरहित बनाने की अपील या जागरूकता से जुड़ा विज्ञापन नजर नहीं आता! अक्सर आता भी है तो कुछ खास मौकों पर जैसे जल दिवस या पेयजल दिवस या प्रदूषण निरोधी दिवस या कोई और दिवस!
पेयजल की इन्हीं विकटताओं के बीच हमें अपनी नदियों के प्रदूषण पर भी चिंतित होना चाहिए. गंगा को लेकर अभियानों, आंदोलनों, मिशनों, नीतियों और कानूनों की तो कमोबेश बाढ़ ही आ चुकी है लेकिन ये फाइलों में ज्यादा है. वास्तविक स्थिति तो यह है कि गंगा यमुना जैसी नदियां मर रही हैं.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इसी साल की एक रिपोर्ट बताती है कि गंगा का पानी तो सीधे पीने लायक है ही नहीं. उसमें इतने घातक बैक्टीरिया आ चुके हैं. गंगा पर सिर्फ 18 ऐसी जगहें बची हैं जहां नहाया जा सकता है. वरना वो पानी नहाने लायक भी नहीं बचा.
गंगा का ज्यादातर प्रदूषित पानी यूपी से लेकर पश्चिम बंगाल तक के प्रवाह में पाया गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तराखंड जहां से गंगा निकलती है, वहां के कुछेक हिस्से और पश्चिम बंगाल के दो स्थान ही ऐसे पाए गए हैं जहां पानी को संक्रमण रहित बनाकर पीने योग्य किया जा सकता है.
अब तो गंगा की हिफाजत के लिए सेना की तर्ज पर गंगा प्रोटेक्शन कॉर्प्स भी बनाये जाने का प्रस्ताव है. इसका जिक्र शीतकालीन सत्र में लाए जा रहे राष्ट्रीय गंगा नदी बिल, 2018 में किया गया है. इसी बिल के तहत गंगा के पानी को किसी भी तरह से प्रदूषित या उसके प्रवाह को किसी भी तरह से बाधित करने को दंडनीय अपराध बना दिया गया है. पांच साल तक की जेल और 50 करोड़ रुपए तक का जुर्माना. लेकिन क्या गंगा का पानी कड़े कानून से साफ हो पाएगा? और जहां गंगा नहीं जाती या जहां वो किसी ना किसी रूप में पेयजल का स्रोत नहीं बनती, वहां क्या होगा. वहां का पानी कैसे साफ होगा और कौन करेगा?
सप्लाई वॉटर और पेयजल की पाइप लाइन की गुणवत्ता और सफाई को लेकर सरकारी कवायदें पहले भी होती रही हैं. वॉटर हैड टैंकों की सफाई का मामला हो या पेयजल का स्रोत या स्रोत से टैंक तक की लाइन की क्वालिटी का मामला, देश के विभिन्न हिस्सों से रिपोर्टे आती रही हैं, कभी भ्रष्टाचार की, कभी कोताही की, कभी लापरवाही की तो कभी लेटलतीफी की.
इन्हीं के बीच कर्मचारियों की किल्लत, उचित प्रशिक्षण का अभाव या उसकी निरतंरता में कमी, कर्मचारियों की वित्तीय मुश्किलें, वेतन विसंगतियां और पेयजल, सिंचाई, लोक निर्माण विभाग आदि विभागों में सामंजस्य और पारदर्शिता की कमी और गल्तियों पर एकदूसरे पर दोषारोपण की प्रवृत्ति. देखा जाए तो एक व्यापक निष्क्रियता और कार्यहीनता ने अर्थव्यवस्था को भी कमजोर किया है.
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