सुशांत सिंह की मौत और जांच की कमजोरियां
५ सितम्बर २०२०बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत केस की जांच को लेकर पहले मुंबई पुलिस पर सवाल उठाए गए और जब मामला सीबीआई के हाथों में पहुंचा तो कई और खुलासे हुए. सुशांत सिंह का मामला जितना बाहर से साधारण दिखता है वह उतना है नहीं. संदिग्ध मौत जिसे पहले पुलिस ने खुदकुशी कहा था, अब कई एजेंसियों द्वारा जांच के बाद अहम जानकारियां सामने आ रही हैं. सुशांत सिंह राजपूत ने खुदकुशी की हो या फिर उनकी "हत्या" हुई हो लेकिन अब तक की जांच में एक बात स्पष्ट है कि बॉलीवुड में "ड्रग्स डीलरों और माफिया" की पकड़ अब भी मजबूत है.
आखिर सवाल उठता है कि सुशांत के परिवार को स्थानीय पुलिस की जांच पर भरोसा क्यों नहीं था और उसने सीबीआई जांच पर ही भरोसा क्यों जताया. इसका जवाब साधारण हो सकता है कि परिवार को पुलिस की जांच करने के तरीकों पर यकीन नहीं था और उसे डर था कि समय बीतने के साथ मामला शांत हो जाता और कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाता. उन्हें डर था कि देश और सुशांत के फैन्स जान नहीं पाते कि आखिर उनकी मौत कैसे हुई. लेकिन इस मामले ने भारत में जांच प्रक्रिया की कमजोरियों को भी उजागर किया है.
जांच के साथ उलझते तार
सुशांत सिंह केस की जांच जैसे जैसे आगे बढ़ रही है वैसे पता चल रहा है कि मामला सिर्फ पैसों का नहीं था, इसमें इंसानी रिश्ते, ड्रग्स और "बॉलीवुड माफिया" की भूमिका सवालों के घेरे में है. कई सालों बाद बॉलीवुड में एक हस्ती की संदिग्ध मौत पर इतना हो हल्ला हो रहा है और मामले की जांच एक नहीं बल्कि कई पहलुओं से की जा रही है. सबसे पहली और मुख्य जांच सीबीआई मौत को लेकर कर रही है. सीबीआई मुख्य तौर पर रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार की भूमिका को लेकर सवाल जवाब कर रही है. रिया और उनके भाई शौविक चक्रवर्ती से सीबीआई कई घंटे की पूछताछ कर चुकी है. दूसरी जांच जो चल रही है वह है ड्रग्स को लेकर जो नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) कर रही है. और ऐसी आशंका जताई जा रही है कि सुशांत की मौत के पीछे ड्रग्स वाला एंगल सबसे अहम है. तीसरी जांच प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है. इस जांच को करने का मकसद कथित मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों की जांच करना है. क्योंकि रिया पर आरोप है कि उसने सुशांत के बैंक खातों से बड़ी रकम निकाली और वह गोवा के होटल कारोबारी गौरव आर्या के संपर्क में थी. कुछ रिपोर्ट के मुताबिक गोवा में गौरव आर्या ने कई जगहों पर निवेश किया है.
बॉलीवुड में ड्रग्स का जाल
दिलचस्प यह है कि खुले तौर पर नहीं लेकिन चोरी छिपे फिल्मी सितारों के ड्रग लेने की बात गाहे बगाहे होती आई है. लेकिन अब सुशांत सिंह के मामले का ड्रग्स केस से जुड़ना वाकई गंभीर सवाल खड़ा करता है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में, जो कि एक बड़ा आतंकी हमला झेल चुकी है, क्या वहां अब भी ड्रग माफिया सक्रिय हैं और उनके ड्रग पेडलर फिल्मी सितारों और युवाओं को ड्रग सप्लाई कर रहे हैं. मुंबई में सप्लाई होने वाला ड्रग जाहिर तौर पर विदेश से ही आता होगा और वह या तो समंदर, जमीन या फिर हवाई जहाज के रास्ते से आता होगा.
सवाल ये है कि आखिर तमाम एजेंसियां शहर में ड्रग माफिया पर नकेल कसने में नाकाम कैसे साबित हुई. साथ ही सवाल मुंबई पुलिस पर भी उठता है जिस पर शहर में कानून व्यवस्था लागू करने की जिम्मेदारी है, क्या वह ड्रग्स को लेकर गंभीर नहीं है? क्या उसे नहीं पता कि शहर में ड्रग्स कहां से आता है और कौन लोग इसके सप्लायर हैं?
ड्रग के धंधे पर नकेल
रोचक बात यह है कि पिछले महीने ही मद्रास हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर पूछा था कि ड्रग्स पेडलिंग को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं. दूसरे राज्यों के युवकों की हालत पंजाब में ड्रग्स की चपेट में आए युवकों जैसी ना हो जाए इसको लेकर चिंता जाहिर करते हुए कोर्ट ने नोटिस जारी किया था. कोर्ट ने सवाल किया था कि क्या युवक बेरोजगारी की वजह से ड्रग के धंधे में शामिल हो रहे हैं और क्या ड्रग्स के पैसों का इस्तेमाल राष्ट्र विरोधी कार्यों के लिए हो रहा है? दो जजों की बेंच ने केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और एम्स के एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहा था कि देश में 3.1 करोड़ से अधिक लोग नशा करते हैं.
सुशांत सिंह राजपूत केस की जांच से यह भी पता चलता है कि पुलिस अमले को ही नहीं एजेंसियां में भी समन्वय की जरूरत है और उन्हें जांच की गोपनीयता को भरपूर ख्याल रखना चाहिए क्योंकि पूर्व में ऐसे कई मामले देखे गए हैं जिनमें आरोपी को पुलिस या एजेसियां दोष साबित नहीं कर पाई या फिर सबूत की कमी के चलते आरोपी अदालत से छूट गया. जांच एजेंसियों को भी मीडिया में "सेलेक्टिव इंफॉर्मेशन" जारी करने से बचना चाहिए और मामले की गोपनीयता विदेशी एजेंसियों की तरह रखनी चाहिए.
पुलिस सुधार
भारत में इस वक्त पुलिस सुधार की बहुत जरूरत है. देश की पुलिस प्रणाली इस वक्त जवाबदेही की कमी और पुलिस द्वारा की गई ज्यादतियों से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र की गैरमौजूदगी से त्रस्त है. अमेरिका में जिस तरह से अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत हो गई थी, उस तरह के मामले भारत में "सामान्य" हैं. हिरासत में मौत हो या फिर आरोपी का "भागते समय पुलिस कार्रवाई" में मारा जाना, उसके बाद न्यायिक जांच बिठाना भी सामान्य बात है. हमने देखा कि कैसे चेन्नई में पिछले दिनों दो लोगों की हिरासत में पिटाई के बाद मौत हो गई थी और उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं था.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हर 24 घंटे में नौ लोगों की पुलिस या न्यायिक हिरासत में मौत हो जाती है. लंबे समय से पुलिस सुधार की वकालत की जा रही है लेकिन कुछ ही सुधार लागू हो पाए हैं. पुलिस सुधारों की तुरंत जरूरत है नहीं तो न्याय प्रणाली से जनता का विश्वास हट जाएगा. साथ ही वर्दी में मौजूद अधिकारियों को मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत है ताकि उनका उल्लंघन न हो और लोग पुलिस को अपनी पुलिस समझें.
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