सोशल मीडिया अकाउंट बंद कर देने से कुछ नहीं होगा
११ जनवरी २०२१सोशल मीडिया के विशाल स्तंभ - अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप - को गिरा दिया गया है. ऐसा किसी छोटी मोटी ताकत ने नहीं बल्कि बड़े दिग्गजों ने किया है - ट्विटर, फेसबुक, गूगल, एप्पल और एमेजॉन ने. अपने सबसे लोकप्रिय यूजर को हटा कर उन्होंने साफ कर दिया है कि उनके प्लेटफॉर्म पर कौन अपने विचार व्यक्त करेगा और कैसे.
ट्विटर के 8.8 करोड़ फॉलोअर और फेसबुक उन्हें लाइक करने वाले 3.5 करोड़ लोगों को अब उनकी नस्लवादी और खतरनाक टिप्पणियां पढ़ने को नहीं मिलेंगी. सोशल मीडिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है.
डॉनल्ड ट्रंप अपने अकाउंट का इस्तेमाल अपने विरोधियों के खिलाफ हथियार के तौर पर कर रहे थे. "हेट स्पीच" और "फेक न्यूज" उनके ट्रेडमार्क थे. उनके ट्वीट का क्या असर हो सकता था यह वॉशिंगटन में संसद पर हमले से साफ हो गया.
खैर, लोग कह रहे हैं कि अब वहां शांति है और इसे देख मैंने भी राहत की सांस ली. लेकिन कुछ ही देर के लिए. क्योंकि अगर हमें अभिव्यक्ति की आजादी चाहिए तो हमें दूसरों को भी अभिव्यक्ति की आजादी देनी होगी. मैं यह जान कर थोड़ी बेचैन हो रही हूं कि मुट्ठी भर लोग मिल कर किसी के लिए दुनिया के सबसे प्रभावशाली प्लेटफॉर्मों के दरवाजे बंद कर सकते हैं.
हमें एक बात समझनी होगी - हम यहां हेट स्पीच या फेक न्यूज का साथ नहीं दे रहे हैं. इनकी पहचान करना, इन्हें सामने लाना और फिर डिलीट करना ही होगा. यह काम इन प्लेटफॉर्म को चलाने वालों का है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने यह काम करना शुरू भी किया है लेकिन हिचकिचाहट के साथ.
मई की बात है जब ट्विटर ने पहली बार राष्ट्रपति ट्रंप के दो ट्वीट पर चेतावनी जारी कर दी थी. उसके बाद से ट्वीट पर वॉर्निंग देने का और उन्हें डिलीट करने का सिलसिला लगातार जारी रहा. हर कोई देख सकता था कि ट्रंप के कुछ बयान कितने बेबुनियाद और खतरनाक थे. यह एक अच्छा कदम था.
हालांकि अकाउंट को ही बंद कर देना - यह तो बहुत आसान था. प्लेटफॉर्म चलाने वाले अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रहे हैं. डॉनल्ड ट्रंप के बिना भी इन प्लेटफॉर्म पर लाखों करोड़ों चीजें ऐसी हैं जिनसे हेट स्पीच, फेक न्यूज और प्रोपगैंडा फैलाया जा रहा है. इसे देखते हुए ट्विटर, फेसबुक और दूसरी कंपनियों को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी होगी. उन्हें लगातार पोस्ट डिलीट करनी होंगी और जहां जरूरी हो, वहां उन पर फेक न्यूज का ठप्पा लगाना होगा.
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये सोशल नेटवर्क विचार व्यक्त करने के लिए अहम माध्यम हैं, खास कर उन देशों में जहां मीडिया पूरी तरह आजाद नहीं है. लेकिन जब कुछ कंपनियों के बॉस बाजार पर हावी हो जाते हैं और अपनी ताकत का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की आजादी के नियमों को तय करने के लिए करते हैं, तो यह किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं कहे जा सकता.
वक्त आ गया है कि हम फेसबुक, ट्विटर और गूगल जैसी कंपनियों की ताकत को संजीदगी से समझें और लोकतांत्रिक तथा सही रूप से इन्हें नियंत्रित करें.
जर्मनी इस दिशा में पहला कदम उठा चुका है. 1 जनवरी 2018 को देश में नेटवर्क एन्फोर्स्मेंट एक्ट (नेट्स डीजी) प्रभाव में आया. इसके तहत सोशल नेटवर्क कंपनियां फेक न्यूज और हेट स्पीच को रोकने के लिए बाध्य हैं.
यूरोपीय आयोग ने इस कानून का स्वागत किया था. तब से अन्य सोशल मीडिया कंपनियों को जर्मनी में सैकड़ों "कॉन्टेंट मॉडरेटरों" को नियुक्त करना पड़ा है जो पोस्ट की निगरानी करते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें डिलीट करते हैं.
सोशल मीडिया पर मौजूद आपत्तिजनक पोस्टों की विशाल संख्या को देखते हुए इसे महज एक शुरुआत ही कहा जा सकता है. लेकिन कम से कम शुरुआत हुई तो सही.
सीधे अकाउंट की बंद कर देना - जैसा कि डॉनल्ड ट्रंप के मामले में किया गया - यह यकीनन सही तरीका नहीं है. यह सिर्फ बड़ी टेक कंपनियों का अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक आसान रास्ता है.
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