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हालात हसीन नहीं हैं हसीना के लिए

प्रभाकर मणि तिवारी
३१ अगस्त २०१८

बांग्लादेश में एक सड़क हादसे से शुरू हुआ बवाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. देश में पत्रकारों के दमन व उत्पीड़न की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. अब पीएम की कुर्सी डोलती दिख रही है.

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Bangladesch - Premierminister Sheikh Hasina
तस्वीर: bdnews24.com

छात्रों का आंदोलन कवर करने के दौरान एक दर्जन से ज्यादा पत्रकारों पर पुलिस ने हमले किए और जाने-माने फोटो-पत्रकार शहीदुल आलम समेत कुछ को गिरफ्तार भी किया गया. इसके और मीडिया पर हमले के खिलाफ पत्रकार भी आंदोलन की राह पर हैं. उन्होंने पांच सितंबर को सांकेतिक भूख हड़ताल का एलान किया है. मौजूदा परिस्थिति में इस साल दिसंबर में होने वाले चुनावों से पहले प्रधानमंत्री शेख हसीना की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं. देश में ब्लागरों और पत्रकारों की हत्या कोई नई बात नहीं है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मौजूदा आंदोलन शेख हसीना के कथित तानाशाही रवैए के खिलाफ आम लोगों की नाराजगी का नतीजा है.

बवाल की शुरुआत

देश में एक सड़क हादसे में दो छात्रों की मौत के बाद परिवहन व्यवस्था को नियंत्रित करने की मांग में हजारों छात्र राजधानी ढाका की सड़कों पर उतर आए थे. धीर-धीरे यह आंदोलन दूसरे शहरों में भी फैल गया. लेकिन हसीना सरकार और उनकी पुलिस ने इस आंदोलन को दबाने के लिए जम कर बल प्रयोग किया. यही नहीं, उसने इस आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों को भी निशाना बनाया. हालांकि बाद में सरकार ने अपना रुख नरम करते हुए ट्रैफिक कानून में जरूरी संशोधन जरूर कर दिया. लेकिन तब तक सरकार-विरोधी आंदोलन की यह आगे पूरे देश में फैल चुकी थी. इस आंदोलन ने दिसंबर में होने वाले आम चुनावों से पहले सरकार के लिए मुश्किलें तो पैदा कर ही दी हैं, इससे बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) को भी एक अहम मुद्दा मिल गया है. बीती फरवरी में खालिदा जिया को जेल भेजे जाने के बाद पार्टी के हौसले कमजोर पड़ गए थे.

(बांग्लादेश में सड़कों पर उतरे छात्र ​​​​​​)

सरकार अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज के लिए विपक्षी बीएनपी को जिम्मेदार ठहराती रही है. उसने उस पर छात्रों के आंदोलन को उकसाने का भी आरोप लगाया था. हसीना सरकार ने छात्रों के आंदोलन को दबाने के लिए जिन तरीकों को अपनाया उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी आलोचना हुई. वर्ष 2009 में सत्ता में आने के बाद बीते लगभग एक दशक के दौरान प्रधानमंत्री शेख हसीना ने जिस तरह इस्लामी गुटों के खिलाफ कार्रवाई की है और 1971 के युद्ध अपराधों के अभियुक्तों को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया है, उससे उसकी काफी आलोचना होती रही है. देश में सरकार की आलोचना करने वाले ब्लागरों और पत्रकारों का अपहरण और हत्याओं के मामले भी हसीना की ओर अंगुलियां उठती रही हैं. उन पर आंतकवाद, नशीली वस्तुओं और भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी अभियान के दौरान अपने विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई के आरोप भी लगे हैं.

दूसरी ओर, बीएनपी ने हसीना के आरोपों का खंडन किया है. पार्टी का कहना है कि छात्रों के आंदोलन के पीछे उसका कोई हाथ नहीं है. लेकिन इस मौके को भुनाते हुए खालिदा की रिहाई के लिए सरकार पर दबाव बनाने की खातिर पार्टी ने पूरे देश में रैलियां आयोजित करने का फैसला किया है. बीएनपी महासचिव मिर्जा फखरूल इस्लाम आलमगीर कहते हैं, छात्रों का विरोध स्वतःस्फूर्त और गैर-राजनीतिक था. इसने दिखा दिया है कि देश को बड़े पैमाने पर मरम्मत व सुधार की जरूरत है.

भ्रष्टाचार के एक मामले में बीती फरवरी में बीएनपी नेता व पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया को पांच साल के लिए जेल की सजा सुनाई गई थी. जिया का आरोप है कि उनको और उनके परिवार को राजनीति से बाहर रखने के लिए यह शेख हसीना की साजिश का हिस्सा है.

मुखर होती आवाजें

अब तमाम लोग सरकारी दमन के खिलाफ खुल कर बोलने लगे हैं. यह जानते हुए भी उनको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. ढाका की एक दुकान में काम करने वाले रबीउल इस्लाम कहते हैं, हसीना सरकार सबकुछ नियंत्रित करने का प्रयास कर रही है. यहां किसी के पास न तो लिखने-पढ़ने और बोलने की आजादी है और न ही कोई लोकतंत्र बचा है. वह कहते हैं कि लोग फेसबुक पर भी सरकार की आलोचना नहीं कर सकते.

Bangladesch Dhaka Anschlag Holey Artisan Bakery Polizei
पुलिस कार्रवाई से लोगों में गुस्सातस्वीर: picture-alliance/dpa

हसीना वर्ष 2014 में विवादों और खालिदा जिया की पार्टी के चुनाव बायकाट के बीच दूसरी बार जीत कर सत्ता में लौटी थी. फिलहाल बीएनपी ने यह फैसला नहीं किया है कि वह दिसंबर में होने वाले चुनावों में हिस्सा लेगी या नहीं.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि छात्रों के आंदोलन को कुचलने के बर्बर रवैए ने चुनावों में सत्तारुढ़ पार्टी की राह में मुश्किलें पैदा कर दी हैं. अब उसकी जीत इतनी आसान नहीं होगी जैसा कुछ महीने पहले अनुमान लगाया जा रहा था. विपक्षी बीएनपी बिखराव की शिकार है और उसके कई नेता विभिन्न आरोपों में जेल में हैं. लेकिन देश की मौजूदा परिस्थिति ने उसे एक संजीवनी मुहैया करा दी है. चटगांव के बीएनपी अध्यक्ष शहादत हुसैन दावा करते हैं कि छात्रों के आंदोलन से साफ है कि अवामी लीग से लोगों का भरोसा उठ गया है.

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जेल में सजा काटतीं खालिदा जियातस्वीर: picture-alliance/dpa/AP Photo/A. M. Ahad

छात्रों के आंदोलन के मुद्दे पर एक टीवी इंटरव्यू में सरकार की नीतियों की खिंचाई करने के आरोप में जाने-माने फोटोग्राफर शहीदुल आलम की गिरफ्तारी से भी लोगों और खासकर मीडिया में भारी नाराजगी है. उनको पांच अगस्त को गिरफ्तार किया गया था. जेल में उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं होने की खबरें सामने आने के बाद से पत्रकारों ने शहीदुल की रिहाई के लिए आंदोलन तेज कर दिया है. पत्रकारों ने पांच सितंबर को अपनी मांग के समर्थन में सांकेतिक हड़ताल का भी फैसला किया है. शहीदुल की जमानत याचिका पर 11 सितंबर को सुनवाई होनी है.

चुनाव

इस बीच, बांग्लादेश चुनाव आयोग ने दिसंबर के तीसरे सप्ताह में राष्ट्रीय चुनाव कराने का एलान किया है. हसीना का कार्यकाल अगले साल जनवरी में खत्म हो रहा है. आयोग के सचिव हेलालुद्दीन ने इस सप्ताह ढाका में बताया कि दिसंबर का तीसरा सप्ताह चुनावों के लिए सबसे अनुकूल है. बीएनपी समेत 21 विपक्षी दलों ने वर्ष 2014 के चुनावों का बायकाट किया था.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि मुक्त व निष्पक्ष चुनाव नहीं होने, आलोचना के प्रति सरकार की बढ़ती असहिष्णुता, हर काम के लिए विपक्षी दलों को जिम्मेदार ठहराने,, मीडिया पर बढ़ते हमले, अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को कुचलने और विकास के मामले में लगातार पिछड़ते जाने की वजह से लोगों में हसीना सरकार के खिलाफ हताशा व नाराजगी लगातार बढ़ रही है.

बंगलुरू के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) से पीएचडी करने वाली अपरूपा भट्टाचार्य कहती हैं, हसीना को आम लोगों की ताकत कम करके आंकने की गलती नहीं करनी चाहिए. लोगों की ताकत ने ही 1971 में बांग्लादेश को जन्म दिया था. वह कहती हैं कि सरकार की नीतियों और अगले कुछ महीने के दौरान उठाए गए कदमों से ही यह तय होगा कि बांग्लादेश में अगले चुनाव मुक्त व निष्पक्ष होंगे या नहीं और लोग एक बार फिर सड़कों पर उतरेंगे या नहीं.

पर्यवेक्षकों का कहना है कि अपने सलाहकारों से घिरी हसीना के लिए अगले कुछ महीने बेहद अहम हैं. इस दौरान सरकारी रवैए और फैसलों से ही तमाम समस्याओं से जूझ रहे बांग्लादेश में भावी राजनीति की दशा-दिशा तय होगी.