सकून की दो रोटी इन लोगों को कहां मिलेगी
४ अप्रैल २०२०पति के कंधे पर बोरी में भरा सामान, पत्नी की गोद में बच्चा, चेहरे पर खौफ, चिंता और अनहोनी के डर का मिला जुला भाव. पीछे लंबी कतारों में पैदल चलते बच्चे, औरत और मर्द. सब की मंजिल सैकड़ों किलोमीटर दूर अपना गांव. अपना वतन, जो सुरक्षा का अहसास देता है, अपनों के पास होने का सुकून देता है, जो किसी भी जरूरत में मदद करने को तैयार होंगे. लेकिन इस सुरक्षा घेरे तक पहुंचने का रास्ता आसान नहीं है. बस, रेल और टैक्सी सब बंद. उस पर से पुलिस का पहरा जो आगे बढ़ने देने को तैयार नहीं. अनिश्चितता में भागते इन लोगों की कहानी भारत में बार बार दोहराई जाती है. फिर भी भागने वाले लोग अकेले होते हैं. उन्हें सहारा होता है तो सिर्फ उनके साथ भाग रहे दूसरे लोगों का.
कोरोना ने शहर से गांवों की ओर भागने वाले लोगों की कहानी में एक और अध्याय जोड़ दिया है. 24 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जानलेवा वायरस को रोकने के लिए 21 दिन के लॉकडाउन का एलान किया, तो यह उस वक्त तक किसी भी देश में लगे लॉकडाउन से लंबा था. करीब डेढ़ अरब की आबादी रातों-रात कर्फ्यू जैसी स्थिति में चली गई. भारत में लागू हुए इस लॉकडाउन का हर तबके के इंसान के लिए अलग मतलब है. अक्सर कहा जाता है, ‘एक भारत में कई भारत हैं.' ये लॉकडाउन की घोषणा के अगले दो दिन के अंदर शहरों की सीमाओं पर लगी भीड़ ने भी दिखा दिया.
सड़कों पर लाचार लोग
पिछले कुछ दिनों से भारत की राजधानी से पैदल घरों को लौटते प्रवासी कामगारों की तस्वीरें पूरे देश को हैरान कर रही हैं. इनमें ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं, ये लोग देश में लॉकडाउन की घोषणा के बाद काम से हटा दिए गए हैं. लॉकडाउन का ऐलान होते ही रेलवे ने 14 अप्रैल तक यात्री ट्रेन सेवाओं को निलंबित कर दिया है. साथ ही अंतरराज्यीय बस सेवाओं को भी बंद के चलते निलंबित कर दिया गया है.
लॉकडाउन के बाद देश के अलग-अलग महानगरों से बड़ी तादाद में प्रवासी कामगार कई सौ किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए पैदल ही निकल पड़े. कोई अपने बच्चों को कंधे पर लादे हुए तो कोई बूढ़ा एक डंडे के सहारे खाली पेट अपने घर पहुंचने की आस लिए चलता रहा. एक आदमी की दिल्ली से मध्य प्रदेश के मुरैना जाने की कोशिश में मौत भी हो गई.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हजार बसों को चलाए जाने के ऐलान के बाद आनंद विहार में हजारों की संख्या में खड़े लोगों की तस्वीर काफी वायरल हुई थी. सोशल डिस्टेंसिंग के सारे नियमों को ताक पर रख कर हजारों की संख्या में सड़कों पर निकले इन लोगों ने अपनी जान तो खतरे में डाली ही कोरोना वायरस के खतरे को भी बढ़ा दिया. इनमें से ज्यादातर लोगों की एक ही दलील है, यहां रहे तो बीमारी से पहले भूख से मर जाएंगे.
देश के भीतर कितने प्रवासी
2011 की जनगणना के अनुसार देश में 45 करोड़ से ज्यादा लोग प्रवासी हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का 37 फीसदी हिस्सा है. उन्हें रोजीरोटी की तलाश में अपना घरबार छोडकर दूसरे शहर या दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है। ये आंकड़ा 2001 में 31 करोड़ था. यानी 10 साल में करीब 14 करोड़ की बढ़त और औसतन हर साल लगभग 1 करोड़ 40 लाख लोगों का पलायन.
उत्तर प्रदेश और बिहार से पलायन करने वालों की संख्या देश के दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है. 2011 की जनगणना के अनुसार कुल संख्या का 50 फीसदी पलायन देश की हिंदी पट्टी, यानि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान से हुए हैं. देश के दो बड़े महानगरों दिल्ली और मुंबई की ओर पलायन करने वालों की कुल संख्या लगभग एक करोड़ थी जो वहां की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा था.
आंकड़ों में 'अदृश्य' मौसमी मजदूर
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (CPR) के पार्था मुखोपाध्याय कहते हैं कि मौसमी मजदूर या कम समय के लिए पलायन करने वाले मजदूरों की संख्या हमेशा से ही ज्यादा रही है, लेकिन ये जनगणना और नैशनल सैंपल सर्वे से गायब हैं. यही कारण है कि ये प्रशासन की नजरों में भी नहीं आते. केंद्र और दिल्ली सरकार की मदद पहुंचाने के तमाम दावों के बावजूद सड़कों पर दिख रही भीड़ से तो साफ जाहिर है ये संख्या लाखों में है.
गांव से पलायन कर के बड़े शहरों की तरफ रुख करने वाले ज्यादातर लोग इन शहरों के खर्चों के बोझ के नीचे दबे रहते हैं. शहरों को सस्ते मज़दूरों की तो ज़रूरत है लेकिन नागरिक सुविधाओं के मामले में उन्हें अपने भरोसे छोड़ दिया जाता है. चूंकि वो निजी अस्पतालों का खर्च नहीं उठा सकते, इलिए बीमार पड़ने के बाद अक्सर अपने गांव वापस चले जाते हैं. ऐसे में जब कोरोनावायरस जैसी महामारी पूरी दुनिया को डरा रही है, तो इन मजदूरों का अपने घर की तरफ रुख करना कोई चौंकाने वाली बात नहीं. एक और समस्या सरकारों में भरोसे की कमी की भी है.
नेताओं को भी उनकी चिंता नहीं क्योंकि वे ज्यादातर यहां के वोटर नहीं. इनके आधार कार्ड और राशन कार्ड अपने गांव के पते पर बने होते हैं, और शहर की भीड़ में बिना ‘आधार' के रह जाते हैं.
शहरों से वापस गांव की ओर
ये पहली बार नहीं जब प्रवासियों को शहर से गांव वापस जाना पड़ा हो. अकसर बड़े शहरों में बिगड़ते हालातों की गाज सबसे पहले प्रवासी मजदूरों पर ही पड़ी है. कभी प्राकृतिक आपदा या कभी हिंसा की वजह से भी प्रवासी कामगारों को बुरी परिस्थितियों में घर वापस लौटना पड़ा क्योंकि उनकी सुध लेने वाला कोई भी नहीं था.
1994 में जब गुजरात में प्लेग का प्रकोप हुआ तो सूरत में पहली मौत के दो दिन के भीतर दो लाख से ज्यादा लोग वहां से कूच कर गए. इनमें ज्यादातर लोग निचले तबके के थे और सूरत की फैक्ट्रियों और मिलों या फिर निर्माण उद्योग में मजदूरी करते थे.
प्रवासी कामगारों को कई बार स्थानीय पहचान की राजनीति की वजह से भी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं, जिसका प्रमुख उदाहरण था मुंबई. 2008 में महाराष्ट्र के कई हिस्सों में यूपी और बिहार से आए लोगों के खिलाफ हिंसा के कई मामले सामने आए जहां कई लोगों को मारा पीटा गया और उनकी संपत्ति को नुकसान पहुचा. इस हिंसा के डर से सिर्फ पुणे से 25 हजार और नासिक से 15 हजार से ज्यादा प्रवासियों ने शहर छोड़ा.
2018 में गुजरात के कई जिलों में उत्तर भारतीयों के खिलाफ व्हाट्सेप और सोशल मीडिया पर फैले नफरत भरे संदेशों के कारण कई लोगों को भीड़ की हिंसा का सामना करना पड़ा, जिसका अंजाम ये हुआ कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के प्रवासी मजदूर रातों रात शहर छोड़कर भागने लगे. इस हिंसा का कारण एक 14 महीने की बच्ची के साथ बलात्कार की घटना थी.
इसी तरह अगस्त 2012 में नॉर्थ ईस्ट के हजारों प्रवासियों ने बेंगलुरू से पलायन करना शुरु कर दिया. वजह थी असम में दंगों के बाद नॉर्थ ईस्ट के लोगों के खिलाफ हिंसा की अफवाह. उस वक्त वहां से वापस जाने वाले लोगों की संख्या इतनी बढ़ी, कि कर्नाटक सरकार को खास ट्रेनों की व्यवस्था करनी पड़ी. चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई और पुणे से भी इस अफवाह की वजह से प्रवासियों के वापस जाने की खबरें आई.
हाल ही में हुए उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों के बाद भी ऐसी ही एक घटना सामने आई थी जहां दिल्ली सरकार के दो सबसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में काम कर रहे मजदूर हिंसा के डर से अपने गांव वापस चले गए थे जिससे कंस्ट्रक्शन का काम ठप्प हो गया. 2018 में केरल में आई बाढ़ के बाद भी लाखों प्रवासियों को अपने घरों की तरफ लौटना पड़ा था. बाढ़ के कारण कंस्ट्रक्शन के काम रुक गए और कई उद्योग ठप्प पड़ गए. 2013 की एक स्टडी के मुताबिक केरल में 25 लाख से ज्यादा प्रवासी हैं, जिसमें से ज्यादातर लोग मजदूरी या छोटी-मोटी नौकरियां करते रहे हैं.
कठिन है आगे की राह
उत्तर प्रदेश के बरेली में बाहर से आए लोगों को लाइन से बिठाकर उनपर केमिकल छिड़कने का मामला सामने आया, तो प्रशासन ने कहा कि सैनिटाइजेशन को लेकर अति सक्रियता के कारण ऐसा हुआ. ऐसे भी कई मामले सामने आ रहे हैं जहां गांव के लोगों ने इंफेक्शन के डर से बाहर से आए लोगों का बहिष्कार करना शुरु कर दिया है. साफ है कि मुसीबतें वहां भी उनका स्वागत करने के लिए तैयार बैठी हैं. शहर से गांव लौटकर काम में लगना भी आसान नहीं मगर अभी तो असली समस्या रास्ते की है.
जॉन स्टीनबैक के चर्चित उपन्यास 'द ग्रेप्स ऑफ रेथ' के आखिर में महानगरों में कठिन जीवन बिता रहे मजदूर अपने गांवों की तरफ लौटते हैं, क्योंकि उन्हें समझ आता है कि सिर्फ खेतों में ही परिश्रम कर उन्हें उनका आत्मसम्मान और जीवन वापस मिल सकता है. इस वक्त भारत के मजदूर भी अपने जीवन को गांवों में ही देख पा रहे हैं. उनका दुर्भाग्य ये है कि कोरोनावायरस के कहर के बीच फिलहाल तो उनके लिए गांव तक पहुंचना भी आसान नहीं.
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