डिजिटल मीडिया पर अंकुश लगाने की बेचैनी
२ अक्टूबर २०२०30 सितंबर का दिन शायद उन चंद मिसालों में एक था जिनकी कल्पना कर केंद्र में सत्ता में बैठी बीजेपी देश की सबसे बड़ी अदालत में बार बार कह रही है कि डिजिटल मीडिया पर अंकुश लगाना जरूरी है. लखनऊ में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने लगभग तीन दशक तक सुनवाई करने के बाद 30 सितंबर को ही यह फैसला सुनाया कि 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के पीछे कोई साजिश नहीं थी, बल्कि वो एक हादसा था.
इस मामले में बीजेपी और संघ परिवार से जुड़े जो 32 आरोपी थे वो सब बरी हो गए. उनमें से जो जीवित हैं उन सबने इसे अपनी जीत बताया और जश्न मनाया, लेकिन ट्विटर पर जो हैशटैग सबसे ज्यादा ट्रेंड कर रहे थे वो बीजेपी विरोधी थे. यह एक दुर्लभ अवसर था जब बीजेपी खुद को ट्रेंड करने वाले हैशटैगों के दूसरी तरफ पा रही थी. अमूमन सोशल मीडिया के इस शक्ति प्रदर्शन में बीजेपी ही आगे रहती है और अपने विशाल आईटी तंत्र और अपार संसाधनों की बदौलत सोशल मीडिया का अजेंडा वो ही तय करती है.
बस कभी कभी बात बीजेपी के हाथ से निकल जाती है और संभव है वो इस स्थिति पर भी नियंत्रण पाना चाहती हो. नैरेटिव पर नियंत्रण पाने की यह चाह उन पत्रकारों, एक्टिविस्टों और टीकाकारों पर होने वाले हमलों में भी नजर आती है जो सोशल मीडिया पर मुखर रूप से केंद्र सरकार की खामियां उजागर करते हैं और संघ परिवार के खिलाफ बोलते हैं. आलोचना का एक ट्वीट निकला नहीं कि ट्रोलों की पूरी एक फौज उन पर टूट पड़ती है.
कभी किसी की कोई टिप्पणी ज्यादा चुभ जाती है तो उसके ट्वीट या फेसबुक पोस्ट के खिलाफ बीजेपी शासित किसी ना किसी राज्य में बीजेपी के समर्थक पुलिस में शिकायत तक कर देते हैं और पुलिस शिकायत पर कार्रवाई भी कर देती है. सभी हथकंडों का उद्देश्य एक ही है. आलोचना और विरोध की सभी आवाजें किसी तरह दबा दी जाएं.
लेकिन सोशल मीडिया पर विरोध की इन आवाजों से भी बड़ी जो समस्या बीजेपी के सामने है वो है पिछले छह-सात सालों में ही पनपा इंटरनेट आधारित मीडिया. ये वेबसाइटें लिगेसी मीडिया से अलग हैं. लिगेसी मीडिया यानी वो न्यूज वेबसाइटें जिन्हें चलाने वाला संस्थान प्रिंट या टीवी पत्रकारिता के क्षेत्र में पहले से हैं.
सिर्फ वेब आधारित मीडिया की पहचान वो वेबसाइटें हैं जिनके पास कोई विरासत नहीं है. वो सिर्फ वेबसाइटों के ही रूप में जानी जाती हैं और इनकी सामग्री सिर्फ इंटरनेट पर ही पढ़ी, सुनी और देखी जाती है और पसंद आने पर आगे भी भेजी जाती है. ये वेबसाइटें बीजेपी को आंख में तिनके की तरह खटकती हैं. इनमें ज्यादातर का विचारधारा के दृष्टिकोण से एक वाम-उदारवादी व्यवस्था की तरफ झुकाव है और ये संघ परिवार की दक्षिणपंथी विचारधारा की धुर विरोधी हैं.
ये स्वभाव से एंटी-एस्टैब्लिशमेंट हैं, राष्ट्रवाद के चश्मे से घटनाओं को नहीं देखतीं, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के प्रति प्राकृतिक रूप से सहानुभूति रखती हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था में संतुलन की पैरोकार हैं. लिहाजा इनके हर दूसरे लेख, वीडियो और दूसरी सामग्री में कोई ना कोई बात ऐसी निकल ही आती है जिनसे संघ परिवार इत्तेफाक नहीं रखता.
संघ परिवार और उसके समर्थकों ने जैसे राजनीति और मुख्यधारा की मीडिया में उदारवादी व्यवस्था का वर्चस्व तोड़ा है, वैसे ही उन्होंने डिजिटल मीडिया में भी उस व्यवस्था को चुनौती देने की कोशिश की है. बीते सालों में इन वेबसाइटों, सरकार के आलोचकों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों और टीकाकारों को प्रत्युत्तर देने के लिए कुछ दूसरी वेबसाइटें भी शुरू हुई हैं जो लगातार इनका विरोध करती हैं और सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी और संघ परिवार से कोई सवाल नहीं पूछतीं.
लेकिन अपनी पूरी कोशिश के बावजूद ये दूसरी श्रेणी वाली वेबसाइटें उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई हैं और नैरेटिव पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर पाई हैं. शायद यही वजह है कि सरकार चाहती है कि डिजिटल मीडिया पर अंकुश लगाया जाए. पर यह इतनी सीधी बात है नहीं. डिजिटल पर हर आवाज ही मीडिया है और अरबों आवाजों पर अंकुश लगाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है.
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore