पत्रकारों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है
११ मई २०२०महामारी और फेक न्यूज से लड़ने की कोशिशों के बीच पत्रकारों को निशाना बनाने का एक और प्रकरण सामने आया है. इंडियन एक्सप्रेस अखबार के दिल्ली संपादक और एक रिपोर्टर को दिल्ली पुलिस ने अखबार में छपे एक लेख से संबंधित जांच में शामिल होने के लिए नोटिस जारी किया है. पुलिस ने चेतावनी भी दी है कि जांच में शामिल ना होने पर दोनों के खिलाफ आईपीसी की धारा 174 के तहत यानी एक पब्लिक सर्वेंट के निर्देश का पालन ना करने के लिए कानूनी कार्रवाई की जाएगी.
इंडियन एक्सप्रेस ने पिछले सप्ताह एक रिपोर्ट में यह दावा किया था कि तब्लीगी जमात के मुखिया मौलाना साद द्वारा जारी किए गए ऑडियो संदेशों की जांच में दिल्ली पुलिस ने यह पाया है कि संभव है कि इनमें से कम से कम एक विवादास्पद क्लिप नकली हो और उसे कई क्लिपों को मिलाकर बना गया हो. इस क्लिप में साद तथाकथित रूप से जमात के अनुयायियों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं करने, तालाबंदी का उल्लंघन करने और दिल्ली के निजामुद्दीन में एक बैठक में हिस्सा लेने के लिए कह रहे हैं.
अखबार के रिपोर्टर को यह जानकारी एक सूत्र ने दी थी जिसका नाम रिपोर्ट में नहीं है. रिपोर्ट अखबार में छपने के बाद दिल्ली पुलिस ने इस खबर का खंडन किया था और इसे तथ्यात्मक रूप से गलत बताया था. इसके बाद भी अखबार अपने दावों पर कायम रहा और अखबार ने यह भी कहा कि रिपोर्ट को छापने से पहले दिल्ली पुलिस में विशेष आयुक्त (क्राइम) प्रवीर रंजन को उन दावों पर प्रतिक्रिया देने के लिए फोन भी किया था और संदेश भी भेजा गया था, लेकिन उन्होंने ना फोन पर बात की और ना संदेश का जवाब दिया.
इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने एक और रिपोर्ट में यह भी दावा किया है कि इसी ऑडियो क्लिप का जिक्र ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट द्वारा फेक न्यूज पर बनाई गई एक रिपोर्ट में भी किया गया था, लेकिन अब उस रपोर्ट को ब्यूरो ने अपनी वेबसाइट से हटा लिया है. ब्यूरो के प्रवक्ता का बयान भी अखबार में छपा है जिसमें उन्होंने यह कहा कि रिपोर्ट में कुछ संशोधन किए जा रहे हैं और उसके बाद उसे फिर से वेबसाइट पर डाल दिया जाएगा.
सूत्रों का नाम गुप्त रखते हुए खबरों के प्रामाणिकता की जांच कर उन्हें छापना पत्रकारिता में आम बात है. ऐसा ना हो तो कितनी ही खबरें कभी आम लोगों तक पहुंच ही ना पाएं. पत्रकारिता के नियम कहते हैं कि जिसके खिलाफ खबर हो उसकी प्रतिक्रिया जरूर मांगी जानी चाहिए और प्रतिक्रिया मिलने का इंतजार भी करना चाहिए. इंडियन एक्सप्रेस की इन रिपोर्टों में इनमें से किसी भी नियम का उल्लंघन नजर नहीं आता है.
खबर से संबंधित व्यक्ति या संगठन को खबर के खंडन करने का भी पूरा अधिकार होता है, लेकिन इस प्रकरण में जिस तरह दिल्ली पुलिस ने कानूनी नोटिस भेज कर रिपोर्टर और संपादक को उनके समक्ष प्रस्तुत होने का निर्देश दिया है उसे मीडिया की आजादी पर हमला बताया जा रहा है.
कई और घटनाएं
पिछले कुछ दिनों में इस तरह की घटनाएं जिनमें पत्रकारों के खिलाफ उनके द्वारा दी गई खबर की वजह से कार्रवाई की गई काफी बढ़ गई हैं. इसके पहले द वायर वेबसाइट के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा तालाबंदी के बीच में अयोध्या में पूजा करने की खबर छापने की वजह से पुलिस की कार्रवाई का सामना करना पड़ा और उन पर अफरातफरी फैलाने के आरोप में एफआईआर दर्ज हुई.
इसके अलावा कुछ ही दिन पहले जम्मू और कश्मीर पुलिस ने कम से कम तीन पत्रकारों के खिलाफ "झूठी" खबर छापने के आरोप में आतंकवादियों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाने वाला कानून यूएपीए लगा दिया था. कश्मीर में पत्रकारों के खिलाफ पुलिस के इस तरह कार्रवाई करने का एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने विरोध किया था और इसे सत्ता की शक्ति का दुरूपयोग और पत्रकारों में डर पैदा करने की कोशिश बताया था. गिल्ड ने मांग की है कि इन मामलों को तुरंत रद्द किया जाए लेकिन मामले अभी तक रद्द नहीं हुए हैं.
फेक न्यूज अपने आप में एक बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक फेक न्यूज के असर से नहीं बच पाए और उन्हें वक्तव्य जारी कर कहना पड़ा कि उनके स्वास्थ्य को लेकर अफवाहें उड़ रही हैं और वो बिल्कुल स्वस्थ हैं. एक और केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के खिलाफ भी फेक न्यूज फैलाने का एक मामला दर्ज हो गया है. मामला कोलकाता पुलिस ने दर्ज किया है और बाबुल सुप्रियो ने इसे राजनीतिक कदम बताया है.
देखा यह जा रहा है कि असल फेक न्यूज पर कड़ी कार्रवाई करने की जगह सरकारें फेक न्यूज के नाम पर राजनीतिक विरोधियों या पत्रकारों को निशाना बना रही हैं.
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