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भारत की तालिबान से बातचीत के हैं कई उद्देश्य

चारु कार्तिकेय
२ जुलाई २०२१

यह तय माना जा रहा है कि पश्चिमी ताकतों के अफगानिस्तान छोड़ने से पहले भारत सरकार ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी है. लेकिन भारत को तालिबान से बातचीत कर क्या हासिल हो सकता है?

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Katar | Friedenskonferenz Afghanistan
दोहा में तालिबान नेताओं के साथ पिछले कई सालों से शांति वार्ता चली है (फाइल फोटो)तस्वीर: AFP/Getty Images/K. Jaafar

सालों पहले अफगानिस्तान से निकलने के उद्देश्य से अमेरिका ने जब 'अच्छा तालिबान और बुरा तालिबान' की अवधारणा देकर तालिबान से बातचीत शुरू की थी, तब भारत ने इसका सख्त विरोध किया था. भारत का कहना था कि 'अच्छा तालिबान' जैसी कोई चीज है ही नहीं, इसलिए तालिबान से बात करने का कोई फायदा नहीं है. लेकिन आज जब अमेरिका और नाटो के अन्य सदस्य देशों की सेनाएं अफगानिस्तान छोड़ कर जा रही हैं, हालात नाटकीय रूप से बदल चुके हैं. इतने कि भारत सरकार और तालिबान के बीच सीधी बातचीत होने के दावे किए जा रहे हैं.

हाल ही में जब नई दिल्ली में एक पत्रकार वार्ता में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछा गया कि क्या भारत सरकार वाकई तालिबान से बातचीत कर रही है, तो उन्होंने कहा कि सरकार "अफगानिस्तान में सभी स्टेकहोल्डरों से बात कर रही है." कुछ पत्रकारों ने यहां तक दावा किया है कि यह बातचीत उच्चतम स्तर पर हो रही है और खुद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान के नेताओं से मिल कर बातचीत की है. भारत सरकार ने इस संबंध में अभी तक कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है, लेकिन मीडिया में आई कुछ खबरों में सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि सरकार ने इस दावे से इंकार किया है.

भारत की चिंताएं

बातचीत विदेश मंत्री के स्तर पर हो या किसी अधिकारी के स्तर पर, यह तय माना जा रहा है कि भारत सरकार ने तालिबान से बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी है. अब सवाल यह उठता है कि इस बातचीत की रूपरेखा क्या है? दोनों पक्ष एक दूसरे से क्या चाहते हैं और उनके बीच किन विषयों पर चर्चा हो रही है? किसी आधिकारिक बयान के अभाव में इस संबंध में पुख्ता जानकारी नहीं है और ऐसे में सिर्फ अंदाजा लगाया जा सकता है.

भारत के पूर्व विदेश सचिव शशांक कहते हैं कि तालिबान से बात करने के भारत के तीन उद्देश्य हो सकते हैं, बीते सालों में अफगानिस्तान की अलग अलग विकास परियोजनाओं में किए गए करीब तीन अरब डॉलर निवेश की रक्षा, हिंसा की वजह से देश छोड़ कर जा रहे अफगानी शरणार्थियों को बड़ी संख्या में भारत में आने से रोकना, और आतंकवादी संगठनों से लड़ने में अपनी क्षमताओं को बढ़ाना.

Afgahnistan, Herat | Taliban Mitglieder schließen sich dem Frieden Prozess an
अफगानिस्तान में तालिबान के बढते कब्जे के बीच हेरात में आत्मसमर्पणतस्वीर: Atiqullah Motmaeen/DW

शशांक ने यह भी कहा कि भारत में कुछ लोगों का यह भी मानना है कि तालिबान के साथ ताल्लुकात रखने से भारत को लंबी अवधि में पाकिस्तान के साथ बातचीत करने में भी मदद मिल सकती है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अलावा भारत में भी अफगानिस्तान मामलों के ऐसे कई विशेषज्ञ हैं जो काफी समय से तालिबान के साथ बातचीत के दरवाजे खुले रखने की जरूरत पर जोर देते रहे हैं. विदेश मंत्रालय में सचिव रह चुके विवेक काटजू उनमें से हैं. काटजू ने डीडब्ल्यू को बताया कि वो कई सालों से अपने लेखों में कहते रहे हैं कि भारत को तालिबान के साथ संपर्क स्थापित करना चाहिए.

तालिबान का खतरा

विवेक काटजू कहते हैं कि अभी अफगानिस्तान में जो हालात हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा करने की जरूरत और बढ़ गई है. इस समय अमेरिका और अन्य नाटो देशों की सेना काफी जल्दी जल्दी अफगानिस्तान छोड़ कर जा रही हैं. अमेरिका इस साल 11 सितंबर 2001 को हुए हमलों की वर्षगांठ से पहले इस प्रक्रिया को पूरा कर लेना चाहता है. इसी हफ्ते 20 साल से गैर-युद्धक भूमिका में देश में मौजूद जर्मनी के आखिरी सैनिकों ने अफगानिस्तान छोड़ दिया. जैसे जैसे पश्चिमी सेनाएं देश छोड़ कर जा रही हैं, देश में हिंसा और तालिबान की महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं.

अफगानिस्तान में जान बचाने वाला रोबोट

अफगानिस्तान में करीब 400 जिले हैं और संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि इनमें से कम से कम 50 पर तालिबान का कब्जा हो चुका है. मीडिया रिपोर्टों में तो कम से कम 100 जिलों पर तालिबान के कब्जे का दावा किया जा रहा है. नई दिल्ली के आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो सुशांत सरीन मानते हैं कि कि तालिबान से बात करने का मतलब यह नहीं है कि आप उनकी गतिविधियों का समर्थन करते हैं.

उनका कहना है किभारत सरकार को तालिबान से संपर्क जरूर करना चाहिए क्योंकि भारत के लिए यह जानना जरूरी है कि तालिबान परोक्ष रूप से किस हद तक पाकिस्तान के हितों को आगे बढ़ाता है. दूसरा, भारत यह भी जानना चाहेगा कि आने वाले दिनों में अगर तालिबान पूरे देश पर कब्जा कर लेता है तो ऐसे में उसकी भारत से क्या अपेक्षा होगी.

पाकिस्तान और तालिबान के संबंध

भारत के तालिबान से रिश्तों पर 1999 के विमान अपहरण प्रकरण का गहरा साया है. तालिबान ने उस समय ऐसा दिखाया था कि अपहरणकर्ताओं से समझौता करने में उसने भारत की मदद की थी, लेकिन कई लोग मानते हैं कि पूरे प्रकरण में तालिबान की भूमिका विवादित थी. तालिबान पर अक्सर पाकिस्तान के प्रॉक्सी होने का आरोप लगता आया है. सरीन याद दिलाते हैं कि तालिबान के वरिष्ठ नेताओं में से एक सिराजुद्दीन हक्कानी के नेतृत्व में काम करने वाले हक्कानी नेटवर्क को अमेरिका के पूर्व सेना प्रमुख एडमिरल माइक मलेन ने प्रामाणिक रूप से आईएसआई की ही एक शाखा बताया था.

Afghanistan Friedensgepräche in Doha
अमेरिकी दूत जालमाय और तालिबान नेता मुल्ला बारादर की 2020 में दोहा में बातचीत तस्वीर: Hussein Sayed/AP/dp/picture alliance

आज हक्कानी नेटवर्क के कई नेताओं के परिवारों के सदस्य पाकिस्तान में रहते हैं और जानकार मानते हैं उनके जरिए आज भी पाकिस्तान तालिबान पर प्रभाव रखता है. इस वजह से यह मानना मुश्किल लगता है कि निकट भविष्य में तालिबान और पाकिस्तान मिल कर काम नहीं करेंगे. पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने भी 'द ट्रिब्यून' में हाल ही में छपे एक लेख में लिखा है कि एक बार अमेरिकी चले गए और तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया, तो पाकिस्तान वहां फिर से जिहादी अड्डे बना कर परोक्ष रूप से भारत को निशाना बनाएगा.

तालिबान और आतंकवाद का खतरा

पश्चिमी ताकतों के चले जाने के बाद अफगानिस्तान में आतंकवादी संगठनों के फिर से सर उठाने को लेकर अमेरिका भी चिंतित है. तालिबान के साथ जिस शांति समझौते पर सहमति हुई है उसमें स्पष्ट रूप से तालिबान से यह वादा लिया गया है कि वो किसी भी आतंकवादी संगठन को अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा. लेकिन 17 जून को अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन और सेना प्रमुख जनरल मार्क मिली ने अमेरिकी संसद की एक समिति को बताया कि उनका अनुमान है कि करीब दो साल में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठन अफगानिस्तान में फिर से खुद को खड़ा सकते हैं.

Afghanistan Angriff auf das Indische Konsulat in Mazar-i-Sharif
मजारे शरीफ में 2016 में भारतीय कंसुलेट पर हमलातस्वीर: Reuters/A. Usyan

दुनिया भर के बड़े आतंकवादी संगठनों का अध्ययन करने वाले कई विशेषज्ञों का कहना है कि अफगानिस्तान में अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के साथ और भी कई आतंकवादी संगठन मौजूद हैं और भविष्य में ये तालिबान के साथ मिल कर काम करें इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. भारत में कुछ जानकार मानते हैं कि तालिबान से बातचीत करने के पीछे भारत की बड़ी चिंताओं में से एक यह है.

आईएस के बढ़ने की आशंका

नई दिल्ली में पत्रकार और 'द ग्रेट गेम इन अफगानिस्तान' किताब के लेखक कल्लोल भट्टाचार्य कहते हैं कि संभव है कि भारत तालिबान को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ एक प्रतिरोधक के रूप में इस्तेमाल करना चाह रहा हो, क्योंकि भारत में हो रही घटनाओं से इस्लामिक स्टेट के किसी न किसी रूप से जुड़े होने के संकेत सामने आने लगे हैं. उन्होंने बताया, "जम्मू में वायु सेना के अड्डे पर जो ड्रोन हमला हुआ है उस पर इस्लामिक स्टेट के प्रमाण चिह्न अंकित हैं, जिससे भारत की चिंताएं और बढ़ गई हैं." इस्लामिक स्टेट को आतंकवाद के लिए ड्रोन का सबसे पहले और व्यापक रूप से इस्तेमाल करने के लिए जाना जाता है.

एक समय था जब इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट हर महीने 70 से 100 ड्रोन हमलों को अंजाम दिया करता था. भारत में पाकिस्तान की सीमा के पास संदिग्ध ड्रोन पिछले दो सालों से हथियार गिराते हुए पकड़े जा रहे हैं, लेकिन यह पहली बार है जब ड्रोन के जरिए हमला हुआ भी है, और वो भी एक सैन्य अड्डे के अंदर. अधिकांश जानकारों ने कहा है कि भारत इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था, और सरकार अब जाकर ड्रोन के खतरे को गंभीरता से ले रही है.

भारत में अधिकारी जम्मू हमले के पीछे पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन लश्कर-इ-तोइबा का हाथ होने की संभावना जाहिर कर चुके हैं और इससे एक बार फिर भारत-पाकिस्तान रिश्तों में तनाव आ गया है. ऐसे में तालिबान से भारत सरकार की बातचीत की प्रक्रिया क्या करवट लेगी और क्या रंग लाएगी, यह अभी कहना मुश्किल है. पूरे प्रांत में घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों की निगाहें इस बात पर हैं कि आने वाले दिनों में भारत-पाकिस्तान-अफगानिस्तान का त्रिकोणीय रिश्ता किस तरह बदलता है.