दम तोड़ रही है अफगान शांति प्रक्रिया
२९ अप्रैल २०२०अमेरिका और तालिबान के बीच संधि पर हस्ताक्षर के सिर्फ दो ही महीनों बाद अफगानिस्तान में हिंसा काबू से बाहर हो रही है. जब संधि पर हस्ताक्षर हुए थे तब अमेरिका ने इसे अफगानिस्तान में वर्षों से चल रहे युद्ध को समाप्त करने का रास्ता बताया था लेकिन विशेषज्ञ अब कह रहे हैं कि बढ़ती हुई हिंसा की वजह से पहले से कमजोर शांति प्रक्रिया खतरे में आ गई है. दर्जनों अफगान सिपाही और तालिबान के लड़ाके रोज मारे जा रहे हैं.
पूरे देश में मारे जाने वाले आम लोगों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन हिंसा में कोई कमी देखने को नहीं मिल रही है. समीक्षकों का कहना है कि तालिबान के लड़ाकों को संधि की शर्तों से और बल मिला है क्योंकि सिर्फ कुछ ही वायदों के बदले उन्हें कई रियायतें मिली हैं. समीक्षकों के अनुसार, इसी वजह से बीते सप्ताहों में उनके हमले बढ़ गए हैं. हालात के बिगड़ने का यह समय भी बहुत बुरा है क्योंकि अफगानिस्तान कोरोना वायरस के कारण फैली महामारी से भी जूझ रहा है.
ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के एक रिसर्चर ऐश्ले जैक्सन का कहना है कि शांति प्रक्रिया "अभी बेजान नहीं हुई है, लेकिन लाइफ सपोर्ट पर है." उन्होंने कहा, "इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता है कि प्रक्रिया के इस तरह से टूट के बिखर जाने में कितना समय बचा है कि उसमें फिर से जान फूंकना मुमकिन ना हो." एक अफगान अधिकारी ने कहा कि 29 फरवरी को दोहा में संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद तालिबान ने रोज औसत 55 हमले किए हैं.
जबकि संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था का कहना है कि अफगान सिपाहियों द्वारा किए गए हवाई हमलों और गोलाबारी की वजह से इतने बच्चे मारे गए हैं जितने तालिबानियों की वजह से नहीं मारे गए होंगे. समीक्षकों का कहना है कि ये खून-खराबा होना ही था क्योंकि संधि की शर्तें ही कुछ ऐसी थीं जिनके तहत अमेरिका ने तालिबान को बहुत बड़ी रियायतें दे दी थीं. संधि में अमेरिकी सैनिकों को पूरी तरह से अफगानिस्तान से हटा लेने का वादा किया गया था लेकिन तालिबान की तरफ से युद्ध-विराम या हिंसा में कमी के लिए भी कोई प्रतिबद्धता नहीं ली गई.
फाउंडेशन फॉर डिफेंस ऑफ डेमोक्रेसीज में सीनियर फेलो बिल रोज्जिओ के अनुसार, इंसर्जेंट समझौते को एक "कब्जे का अंत करने वाली संधि" के रूप में देखते हैं." वे कहते हैं, "अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता है और उसने तालिबान की सभी शर्तें मान ली हैं." काबुल में रहने वाले सामरिक और सुरक्षा मामलों के जानकार निशंक मोटवानी कहते हैं कि दोहा समझौते ने तालिबान को वैधता और प्रोत्साहन दोनों दे दिया और अब वो समझते हैं कि उन्होंने युद्ध जीत लिया है तो अब वैसे भी लड़ाई बंद करने का कोई कारण नहीं है. उनके मुताबिक, "तालिबान मूल रूप से ये मानते हैं कि वो जीत चुके हैं."
अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के रेजिडेंट स्कॉलर माइकल रुबिन का कहना है, "ये शांति संधि नहीं है, ये सिर्फ एक समझौता है जिससे अमेरिकियों को अफगानिस्तान छोड़ने का मौका मिल सके. और अगर इसके लिए अफगान लोगों को बस के पहियों के नीचे फेंक देना पड़े, तो वो भी सही है." समझौते में राष्ट्रपति अशरफ गनी की तरफ से भी कई वायदों का जिक्र है, जिनमें एकतरफा बंदियों की अदला-बदली भी शामिल है, बावजूद इसके कि अमेरिका और तालिबान के वार्ताकारों ने उनकी सरकार को बाकायदा बातचीत से अलग रखा.
अदला-बदली में गनी तालिबान के 5,000 बंदियों को रिहा करेंगे जिनमें कई ऐसे लड़ाके भी शामिल हैं जिनकी युद्ध-भूमि में वापस जाने की पूरी संभावना है. बदले में तालिबान 1,000 अफगान सुरक्षाकर्मियों को रिहा करेगा. ये अदला-बदली 10 मार्च तक हो जानी थी, जिसके बाद अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता शुरू हो जानी थी. तालिबान में एक सूत्र ने बताया कि जब तक बंदी रिहा नहीं हो जाते तब तक उनका हिंसा को कम करने का कोई इरादा नहीं था. उसने फिर से जोर देकर कहा कि जब तक वो नहीं होता तब तक बातचीत नहीं होगी.
शांति वार्ता के लिए चुनी गई अफगान टीम की सदस्य फौजिया कूफी का कहना है कि अफगानिस्तान का राजनीतिक संकट भी एक बाधा है, जिसके तहत गनी के प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने उनकी वैधता को चुनौती दी है. वो कहती हैं, "हम इस राजनीतिक विवाद के अंत का इंतजार कर रहे हैं ताकि बातचीत के दौरान हम संगठित हों." फिलहाल सभी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि शांति वार्ता की सफलता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी ये है कि दोनों पक्ष बात करते रहें, भले ही लड़ाई चल रही हो, तब भी.
सीके/एए (एएफपी)
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