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नल में आने वाला पानी बन सकता है बड़ी आपदा की वजह

९ जनवरी २०२३

एंटीबायोटिक दवाएं संक्रमण के इलाज में शुरुआती जरिया मानी जाती हैं. इनका अंधाधुंध इस्तेमाल पूरी दुनिया के लिए बड़ा खतरा है. इसके कारण बैक्टीरिया, संक्रमण का इलाज करने वाली दवाओं से जीतने की ताकत विकसित कर लेते हैं.

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बेकार पानी और इसे साफ करने वाले ट्रीटमेंट प्लांट्स में एंटीबायोटिक अवशेषों की बड़ी मात्रा में मौजूदगी बेहद चिंताजनक है. इसके कारण ट्रीटमेंट प्लांट से भेजा जाने वाला पानी एएमआर पैदा करने का जरिया बन सकता है.
बेकार पानी और इसे साफ करने वाले ट्रीटमेंट प्लांट्स में एंटीबायोटिक अवशेषों की बड़ी मात्रा में मौजूदगी बेहद चिंताजनक है. इसके कारण ट्रीटमेंट प्लांट से भेजा जाने वाला पानी एएमआर पैदा करने का जरिया बन सकता है. तस्वीर: Rui Vieira/empics/picture alliance

भारत और चीन में बेकार पानी और उसे साफ करके पीने के पानी में बदलने वाले ट्रीटमेंट प्लांट, एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस (एएमआर) पैदा करने का बड़ा ठिकाना बन रहे हैं. इसकी वजह है, पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी. यह जानकारी "दी लैंसेट प्लानेट्री" में छपे एक हालिया शोध में सामने आई है.इस रिसर्च के ऑथर हैं- नदा हाना, प्रोफेसर अशोक जे तामहंकर और प्रोफेसर सेसिलिया स्टाल्सबी लुंडबोर्ग. 

रिसर्च के लिए चीन और भारत समेत कई जगहों पर पानी के नमूने जमा किए गए.इनमें वेस्टवॉटर और ट्रीटमेंट प्लांट्स से लिए गए पानी के नमूने भी थे. जांच में पाया गया कि कई जगहों के पानी में एंटीबायोटिक की मौजूदगी अधिकतम सीमा से ज्यादा है. चीन में एएमआर की स्थिति पैदा करने का सबसे ज्यादा जोखिम नल के पानी में पाया गया. इसमें सिप्रोफ्लोएक्सिन की काफी मौजूदगी मिली.

कारगर नहीं हैं वेस्टवॉटर ट्रीटमेंट प्लांट

भारत जैसे देशों में शहरी इलाकों में आमतौर पर नगर निगम और नगरपालिकाएं लोगों को नल के पानी की आपूर्ति करती हैं. इस पानी को पहले ट्रीटमेंट प्लांट में साफ किया जाता है. प्लांट तक पहुंचने वाले पानी में कई स्रोतों का योगदान होता है. मसलन, अस्पताल, मवेशीपालन की जगहें, दवा बनाने वाली जगहों से निकलने वाला पानी.

इस पानी में मौजूद एंटीबायोटिक अगर ट्रीटमेंट प्लांट से होकर गुजरने के बाद भी मौजूद रहा, तो सप्लाई होने वाले पानी में भी एंटीबायोटिक होगा. लोग पीने, मवेशियों को पिलाने जैसे कामों में इस पानी का इस्तेमाल करेंगे. इससे एमएमआर का जोखिम बढ़ेगा. इस रिसर्च से यह भी पता चलता है कि ट्रीटमेंट प्लांट की मौजूदा व्यवस्थाएं ऐसे तत्वों को हटाने में असरदार साबित नहीं हो रही हैं. ऐसे में मौजूदा ढांचे को और कारगर बनाने की जरूरत है.

एएमआर, दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए गंभीर खतरा है. इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर मौजूदा दवाएं बेअसर होंगी और इलाज नहीं हो सकेगा.
एएमआर, दुनियाभर के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे के लिए गंभीर खतरा है. इसके कारण इंसानों और जानवरों में ऐसे संक्रमण पैदा हो सकते हैं, जिनपर मौजूदा दवाएं बेअसर होंगी और इलाज नहीं हो सकेगा. तस्वीर: Joly Victor/ABACA/picture alliance/dpa

क्या है एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस

एंटीमाइक्रोबियल (सूक्ष्मजीवरोधी) वो तत्व है, जो जीवाणु या फंगी जैसे सूक्ष्मजीवों को खत्म करता है. उन्हें बढ़ने और बीमारी फैलाने से रोकता है. इसी से जुड़ी स्थिति है एएमआर, जिसमें ये सूक्ष्मजीव खुद को नष्ट करने वाली दवाओं, यानी एंटीबायोटिक्स से लड़ने और उन्हें हराने की क्षमता विकसित कर लेते हैं. ऐसी स्थिति में जीवाणु खत्म नहीं होते और बढ़ते रहते हैं. नतीजतन, स्थापित इलाज की प्रक्रिया और दवाएं बेअसर हो जाती हैं. संक्रमण की स्थिति जानलेवा हो सकती है और इसके दूसरे जानवरों और इंसानों में फैलने का जोखिम बढ़ जाता है.

अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1928 में दुनिया की पहली एंटीबायोटिक दवा पेनिसिलिन का आविष्कार किया था. इससे पहले न्यूमोनिया जैसे मामूली संक्रमणों के लिए भी कोई प्रभावी इलाज उपलब्ध नहीं था. इस खोज के लिए फ्लेमिंग को 1945 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार मिला. पेनिसिलिन की खोज के साथ ही ऐंटीबायोटिक दवाओं का दौर शुरू हुआ. कई तरह के संक्रमणों में प्रभावी इलाज मिला. इनके कारण अनगिनत लोगों की जान बचाई जा सकी.

एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल में जोखिम भी

इनसे संक्रमण पैदा करने वाले कुछ बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं और कुछ उस दवा से लड़ने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा कर लेते हैं. एंटीबायोटिक का अंधाधुंध और बेरोकटोक इस्तेमाल इम्यून हो जाने वाले बैक्टीरिया की संख्या बढ़ाता है. जितना ज्यादा एंटीबायोटिक इस्तेमाल किया जाए, बैक्टीरिया के इम्यून होने की संभावना भी उतनी ज्यादा बढ़ती है.

ऐसी स्थिति भी आ सकती है, जब कोई भी या ज्यादातर उपलब्ध एंटीबायोटिक बेअसर साबित हो.इसीलिए जानकार एंटीबायोटिक के सीमित इस्तेमाल पर जोर देते हैं. भारत एंटीबायोटिक का बड़ा उत्पादक है. वहां ये दवाएं आमतौर पर बिना डॉक्टरी पर्चे के भी मिल जाती हैं. जानकारी की कमी के कारण लोग सर्दी-खांसी जैसे संक्रमणों में भी ये दवाएं ले लेते हैं, जबकि एंटीबायोटिक केवल बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमणों में ही प्रभावी है.

पशुपालन में भी सख्त नियमों की जरूरत

इसके अलावा मवेशीपालन भी एएमआर का बड़ा जरिया बन रहा है. गाय, मुर्गा और सूअर जैसे मांस और दूध के लिए पाले जाने वाले जानवरों को बड़े स्तर पर एंटीमाइक्रोबियल दवाएं दी जाती हैं. यूरोप के कई देशों में इससे निपटने के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं, जिनसे मदद भी मिल रही है. 2021 में यूरोपियन फूड सेफ्टी अथॉरिटी (ईएफएसए) ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मवेशियों को एंटीबायोटिक दिए जाने में कमी आई है.

2016 से 2018 के बीच मांस और डेयरी के लिए पाले जाने वाले जानवरों में पॉलीमिक्सिन श्रेणी के एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करीब 50 फीसदी तक कम हुआ है. लेकिन भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में अभी भी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है. 2019 में साइंस जर्नल में एएमआर से जुड़ी एक रिसर्च में अनुशंसा की गई थी कि ये देश मवेशीपालन में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए जल्द-से-जल्द प्रभावी कदम उठाएं.

भारत के लिए गंभीर स्थिति

एएमआर पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा है. इसके कारण अकेले 2019 में ही दुनियाभर में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई. जानकारों का कहना है कि भारत एएमआर से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में है. 2016 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, एएमआर के कारण भारत में हर साल करीब 60 हजार नवजात बच्चों की मौत हो रही है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में केवल 43 फीसदी न्यूमोनिया के मामलों को ही शुरुआती स्तर (फर्स्ट लाइन) के एंटीबायोटिक्स से ठीक किया जा सका. 2016 में यह आंकड़ा 65 फीसदी था.

एएमआर के घातक जोखिम के मद्देनजर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2015 में इस विषय पर वैश्विक रणनीति की घोषणा की थी. भारत भी 2017 में इसपर एक नेशनल ऐक्शन प्लान लाया. इसके अंतर्गत राज्य सरकारों को प्रदेश स्तर पर एक रणनीति बनाने की सलाह दी गई. लेकिन "डाउन टू अर्थ" की एक रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर 2022 तक केवल तीन ही राज्य अपनी कार्य योजना ला पाए हैं.

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एसएम/एमजे