पहले कभी इतनी तेजी से जीव खत्म नहीं हुए
२५ जून २०२२धरती पर पाई जाने वाली बहुत सी प्रजातियां हमारी आंखों के सामने बड़े पैमाने पर विलुप्त होती जा रही हैं लेकिन हममें से ज्यादातर लोग इससे बेखबर हैं. विलुप्त होने वाली प्रजातियां ऑनलाइन यचिकाएं नहीं पोस्ट करतीं और ना ही विरोध प्रदर्शन करती हैं. कई प्रजातियां तो ऐसी हैं जिनके बारे में तो लोगों को पता भी नहीं है कि वे धरती पर पाई भी जाती हैं.
अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता परिषद (आईपीबीईएस) के मुताबिक धरती पर जीव-जंतुओं की करीब 80 लाख प्रजातियां पाई जाती हैं लेकिन इनके एक हिस्से के बारे में ही वैज्ञानिकों के पास जानकारी मौजूद है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि हर दस मिनट पर एक प्रजाति विलुप्त हो रही है और साल 2030 तक दुनिया भर में करीब 10 लाख प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी. यह बहुत बड़ा नुकसान है या यूं कहें कि विनाशकारी स्थिति है क्योंकि दुनिया में जैव विविधता में होने वाली कमी मानव समेत हर एक प्रजाति के लिए बेहद खतरनाक है.
कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में इस साल के अंत में होने वाले 15वें संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में करीब दो सौ देशों के प्रतिनिधियों के हिस्सा लेने की संभावना है. इस दौरान जैव विविधता के संरक्षण के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय कार्ययोजना तैयार की जा सकती है. इसी से संबंधित समझौते का मसौदा केन्या की राजधानी नैरोबी में तैयार किया जा रहा है.
तो क्या वैश्विक समुदाय प्रजातियों के विलुप्त होने वाले संकट का हल निकाल पाएगा? पेश हैं ऐसी कुछ बातें जो आपको भी जानने की जरूरत है.
जैव विविधता क्या है और इसके खत्म होने के क्या मायने हैं?
लाइबनिस रिसर्च फॉर बायोडायवर्सिटी की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि धरती पर पाई जाने वाली तमाम प्रजातियां मानव जीवन के हर पहलू के लिए जरूरी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, "हम जिस हवा में सांस लेते हैं, साफ पानी पीते हैं, खाने खाते हैं, कपड़े पहनते हैं, ईंधन, दवाई, घर बनाने की चीजें- यानी हमारा जीवन, हमारा स्वास्थ्य, हमारा पोषण और हमारा रहन-सहन, सब कुछ इसी जैव विविधता से मिलता है.”
दुनिया भर में पाई जाने वाली दो-तिहाई से ज्यादा फसलें परागण के लिए कीटों पर निर्भर हैं. बिना इन कीटों के परागण संभव नहीं और बिना परागण के फसल संभव नहीं. और जब फसल नहीं होगी तो हमें भोजन नहीं मिलेगा. आज स्थिति यह है कि इन कीटों की करीब एक तिहाई प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं.
जैव विविधता का कम होना या खत्म होना चिकित्सा के क्षेत्र में भी भूचाल ला सकता है क्योंकि ज्यादातर दवाइयों के प्रमुख स्रोत प्राकृतिक चीजें ही हैं. कैंसर के उपचार में काम आने वाली करीब 70 फीसद दवाएं प्राकृतिक संसाधनों से ही मिलती हैं.
जर्मनी के फ्रैंकफर्ट शहर स्थित जेंकेनबर्ग सोसायटी फॉर नेचर रिसर्च के डायरेक्टर क्लीमेंट टॉक्नर कहते हैं, "प्रकृति के उद्भव के 3.5 अरब साल का ज्ञान इसी जैव विविधता में संचित है. हमारी जैविक पूंजी का इस तरह लगातार कम होना पूरी मानवता के लिए खतरा है- क्योंकि यह यदि एक बार खत्म हुई तो हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.”
इतनी सारी प्रजातियां क्यों विलुप्त हो रही हैं?
इस सवाल का जवाब है मनुष्य. अर्थ ओवरशूट डे के मुताबिक, हम हर साल पृथ्वी के संसाधनों का इतना ज्यादा उपभोग कर लेते हैं कि जिसकी भरपाई नहीं हो पाती है. औद्योगिक कृषि, वनों की कटाई, मछलियों का अत्यधिक शिकार और प्रदूषण जैसे कारण प्रजातियों के विलुप्त होने में सबसे ज्यादा सहायक बन रहे हैं. इसे कुछ इस तरह समझना चाहिए कि यदि मनुष्य न होता तो प्रजातियों के विलुप्त होने की दर एक हजार गुना कम होती.
तो क्या कुछ प्रजातियों का विलुप्त होना वास्तव में बहुत बड़ा नुकसान है?
धरती के इतिहास पर नजर डालें तो अब तक तमाम प्रजातियां मौजूद रहीं, काफी समय तक फलती-फूलती रहीं और फिर खत्म हो गईं. लेकिन इतने कम समय में जैव विविधता को इतना ज्यादा नुकसान इससे पहले कभी नहीं हुआ. और इस नुकसान के पीछे कोई और प्रजाति नहीं है बल्कि सिर्फ और सिर्फ मनुष्य ही है.
जर्मन फेडरल एजेंसी फॉर सिविक एजुकेशन के मुताबिक, 1970 से 2014 के बीच, 60 फीसद वर्टीब्रेट्स कम हो गए. वर्टीब्रेट्स उन जीवों को कहते हैं जिनमें रीढ़ की हड्डी होती है. दक्षिण और मध्य अमेरिका में तो वर्टीब्रेट्स की संख्या 90 फीसद तक कम हो गई. इसी समयावधि में, पानी में रहने वाले जीवों की संख्या में 83 फीसद तक की कमी आ गई.
बर्लिन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के डायरेक्टर योहानेस फोगेल कहते हैं कि एक ही जीनस के भीतर होने वाले नुकसान का असर मनुष्य समेत पूरे ईको सिस्टम पर पड़ता है. कई प्रजातियों के समूह को जीनस कहते हैं. उनके मुताबिक, "दुनिया भर में मेंढक मर रहे हैं क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से फंगस फैल रहे हैं जो मेंढकों के जीवन के लिए खतरनाक हैं. इसका असर क्या होगा, इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है. मेंढक मच्छरों के लार्वे खाते हैं और जब मेंढक नहीं खाएंगे तो बहुत ज्यादा संख्या में मच्छर पैदा होंगे और मच्छर मनुष्य को कितना नुकसान पहुंचाते हैं, यह सबको पता है. दुनिया भर में सबसे ज्यादा मौतें मच्छरों की वजह से ही होती हैं.”
मनुष्य पूरे ईको सिस्टम के लिए खतरा कैसे बन गया?
ईको सिस्टम उसे कहते हैं जहां तमाम प्रजातियां अपने जीवन निर्वाह के लिए एक दूसरे पर निर्भर होती हैं. हाले-येना-लाइपजिग यूनिवर्सिटी में जर्मन सेंटर फॉर इंटीग्रेटिव बायोडायवर्सिटी की आंद्रिया पेरिनो कहती हैं कि स्वस्थ ईको सिस्टम में किसी प्रजाति को व्यक्तिगत स्तर पर थोड़ा बहुत नुकसान भी हो जाए तो वह ठीक भी हो जाता है. वह कहती हैं, "लेकिन जितनी ज्यादा प्रजातियां कम होती जाएंगी, सिस्टम का संतुलन उतना ही बिगड़ता जाएगा और उतना ज्यादा नुकसान होगा.”
अमेजन के वर्षा वन इसका बेहतरीन उदाहरण हैं जहां खेती और खनन के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों को काट दिया गया. एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है और मनुष्य की इस तरह की गतिविधियां पूरे ईको सिस्टम को खतरे में डाल देती हैं.
जैव विविधता का संरक्षण इतना मुश्किल क्यों है?
1992 की शुरुआत में रियो डी जेनेरियो में हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि यानी सीबीडी को अपनाया गया. इसके तहत, सभी शामिल देशों ने इस बात पर सहमति जताई कि वे आर्थिक विकास को इस तरह संचालित करेंगे ताकि धरती के पर्यावरण को नुकसान न हो. इसके बाद भी इस तरह के कई सम्मेलन हुए जिनमें ऐसे ही कई समझौते किए गए. लेकिन पिछले तीस साल में इन सम्मेलनों में तय किया गया कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका.
पेरिनो कहती हैं कि सभी देशों को अपने हिसाब से लक्ष्य तय करने थे लेकिन ज्यादातर देशों ने महज घोषणा भर की, उसे पाने की कोशिश नहीं की. खासकर औद्योगीकृत देशों में इस दिशा में बहुत ही कम प्रभावी कदम उठाए गए.
सीबीडी के लक्ष्यों को कैसे प्राप्त किया जाना है, इस बारे में भी काफी अस्पष्टता है. पेरिनो कहती हैं, "यह अक्सर स्पष्ट नहीं हो पाता है कि सुरक्षात्मक उपायों से कुछ हासिल हो भी रहा है या नहीं. फिलहाल, किसी भी बदलाव की निगरानी की सख्त जरूरत है.”
हम प्रकृति से ज्यादा जलवायु की बात क्यों करते हैं?
जर्मनी में पर्यावरण से संबंधित एनजीओ बीयूएनडी के बायोडायवर्सिटी पॉलिसी एक्सपर्ट निकोला ऊदे कहती हैं, "जलवायु संकट को देखते हुए हम 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य तय करके उस पर काम करना शुरू कर सकते हैं जबकि प्रकृति के समक्ष जो संकट है, उसके खिलाफ लड़ाई कहीं ज्यादा जटिल है. यह इतनी आसान नहीं है कि लक्ष्य तय करके उसे हासिल कर लें. प्रकृति हमारे लिए कितनी कीमती है, इस बारे में जागरूकता तभी आती है जब हम इसका नुकसान सामने देखने लगते हैं.”
बाढ़, सूखा और ग्लेशियरों का पिघलना अक्सर अखबारों की सुर्खियों में रहता है लेकिन मेंढकों का बड़ी संख्या में मरना और उनके विलुप्त होने का खतरा शायद ही कभी सुर्खियों में रहता हो, जबकि जलवायु संकट और जैव विविधता पर खतरा, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न स्थितियों के कारण भी कई प्रजातियों विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं. जिस तरह से जंगल काटे जा रहे हैं और नदी किनारे की गीली जमीन खाली की जा रही है, वह न सिर्फ वहां पाई जाने वाली प्रजातियों के लिए खतरा है बल्कि कार्बन सोखने की उनकी क्षमता भी खत्म हो रही है. और इससे ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बढ़ रहा है.
टॉकनर कहते हैं कि इसीलिए इन दोनों समस्याओं को एक साथ देखने की जरूरत है, "रैनेचुरेशन की क्रिया, जैसे पीटलैंड्स को दोबारा वेटलैंड या दलदली भूमि में बदलना, न सिर्फ जैव विविधता के लिए बल्कि जलवायु के लिए भी लाभकारी है.”
COP15 की खास बातें क्या हैं?
कनाडा में होने वाले यूएन बायोडायवर्सिटी कांन्फ्रेंस से पहले की वार्ताओं में सदस्य देशों का कहना है कि साल 2030 तक जमीन और समुद्री क्षेत्र के तीस फीसद हिस्से को संरक्षित किया जाना चाहिए.
लेकिन पेरिनो कहती हैं कि यहां संरक्षण शब्द बहुत स्पष्ट नहीं है कि उससे इन लोगों का क्या मतलब है. वह कहती हैं, "संरक्षण को लेकर मजबूत और कमजोर दोनों श्रेणियां हैं. प्रकृति संरक्षण के जरिए नहीं बल्कि रीनैचुरेशन के माध्यम से संतुलन में वापस आती है.”
यह भी स्पष्ट नहीं है कि धरती के इस तीस फीसद हिस्से को संरक्षण के लिए विभिन्न देशों के बीच कैसे बांटा जाएगा. बीयूएनडी की मांग है कि हर देश की भूमिका तय की जाए. ऊदे कहती हैं, "यह महत्वपूर्ण है ताकि इस प्रक्रिया में सभी मौजूदा ईको सिस्टम को कवर किया जा सके- सिर्फ टुंड्रा या अंटार्कटिक क्षेत्र को ही नहीं बल्कि ट्रॉपिकल वर्षा वन, मध्य यूरोप के रेड बीच फॉरेस्ट, मैंग्रोव और कोरल रीफ्स को भी संरक्षण की जरूरत है.”
वार्ताओं में वित्तीय संरक्षण भी एक अहम बिंदु है. अमीर देशों में औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक ईको सिस्टम बहुत कम बचा है जबकि गरीब देशों में अभी भी काफी जैव विविधता बची है.
गरीब देशों की मांग है कि इनके बेहतर संरक्षण के लिए अमीर देश साल 2030 तक वित्तीय सहायता को 160 अरब डॉलर से बढ़ाकर 700 अरब डॉलर कर दें.
रिपोर्ट: ज्यांनेटे सीविंक