जलवायु परिवर्तन के कारण पलायन को मजबूर भारतवासी
२१ अप्रैल २०२३प्रोतिमा राय अब भी बुलबुल चक्रवात की वजह से हुई तबाही को याद कर सिहर उठती हैं. इस उष्णकटिबंधीय चक्रवात ने 2019 में सुंदरबन को तबाह कर दिया था. कई लोगों की जान चली गई थीं. बंगाल की खाड़ी में बने इस चक्रवात ने 27 साल की राय सहित सैकड़ों परिवारों को अपना गांव छोड़ कर सुरक्षित क्षेत्रों में पलायन के लिए मजबूर कर दिया था.
राय ने डीडब्ल्यू को बताया, "खेत खेती करने लायक नहीं बचे. खेती करना और मछली पकड़ना यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन था. समुद्र के बढ़ते स्तर और खारापन ने सुंदरबन के मुख्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से उनकी आजीविका का प्रमुख साधन छिन लिया.”
जलवायु परिवर्तन की वजह से पलायन को मजबूर लोग
सुंदरबन से अभी भी स्थायी, मौसमी और अस्थायी तौर पर पलायन जारी है. ग्रामीण घरेलू सर्वेक्षण के अनुसार, अलग-अलग परिवारों के करीब 25 फीसदी से अधिक कमाऊ लोग काम की तलाश में अस्थायी रूप से पलायन कर गए हैं.
सुंदरबन बंगाल की खाड़ी में निचले द्वीपों का एक समूह है, जो भारत और बांग्लादेश में फैला हुआ है. यह अपने अद्वितीय मैंग्रोव वनों के लिए प्रसिद्ध है. भारतीय सुंदरबन में कुल मिलाकर 104 द्वीप हैं, जिनमें से 54 पर इंसानी बस्तियां हैं.
पर्यावरणविद् बताते हैं कि तटीय कटाव और समुद्र का बढ़ता जलस्तर धीरे-धीरे सुंदरबन की धरती को निगल रहा है. गांवों के कई लोग कोलकाता जैसे शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि उनकी उपजाऊ भूमि तूफान और बाढ़ की बढ़ती संख्या के साथ खारी हो रही है.
मदद के लिए कोई राजनीतिक योजना नहीं
कोलकाता में रहने वाले पर्यावरण और जलवायु विशेषज्ञ जयंत बसु ने डीडब्ल्यू को बताया, "जलवायु परिवर्तन और उसकी वजह से होने वाले पलायन की समस्या दूर करने के लिए, कोई भी प्रशासनिक नीति या योजना नहीं है जिससे वहां रहने वाले लोगों को सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराई जा सके.”
पूर्वी राज्य ओडिशा भी प्रवासी श्रमिकों का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. जलवायु परिवर्तन यहां के लोगों को ज्यादा कमजोर बना रहा है और इस वजह से वे काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं.
उड़ीसा में चिल्का झील खारे पानी की सबसे बड़ी झील है. यह पक्षियों का भी बड़ा बसेरा है. पर्यावरण में होने वाले बदलाव से यह भी अछूता नहीं है. इससे यहां की लोगों की आजीविका काफी हद तक प्रभावित हुई है.
पर्यटन उद्योग में काम करने वाले सुज्ञान बेहरा ने डॉयचे वेले को बताया, "चरम मौसम की घटनाओं के बाद झील के उत्तरी किनारे पर स्थित मंगलाजोडी शहर में रोजगार के विकल्प सीमित हो गए हैं. कई लोगों ने स्थायी रूप से बाहर जाने का फैसला किया.” शहर की आबादी करीब 10,000 है, जिनमें से ज्यादातर लोग झील के आसपास ही किसी न किसी काम में लगे हुए हैं.
जलवायु की वजह से होने वाला पलायन अक्सर चरम घटनाओं से प्रभावित होता है, जैसे कि तूफान, बाढ़, सूखा, समुद्र का स्तर बढ़ना या खेती वाले इलाके में खारे पानी का जमा होना.
एक्शनएड और क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया ने दिसंबर 2020 में एक रिपोर्ट छापी. इससे पता चलता है कि भले ही वैश्विक समुदाय ग्रीनहाउस गैस कम करने का लक्ष्य निर्धारित किए हुए है और उस मुताबिक काम कर रहा है, फिर भी पांच एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में 2030 तक 3.75 करोड़ लोग विस्थापित होंगे. वहीं, 2050 तक यह संख्या बढ़कर 6.29 करोड़ तक पहुंच सकती है.
सबसे ज्यादा विस्थापन
सिर्फ भारत में 2050 तक जलवायु से जुड़े आपदाओं के कारण 4.5 करोड़ लोगों को अपने घरों को छोड़कर दूसरी जगहों पर पलायन करना पड़ेगा. यह संख्या मौजूदा समय में चरम घटनाओं के कारण पलायन करने वाले लोगों की तीन गुनी है. दूसरे शब्दों में कहें, तो मौसमी मार की वजह से पलायन करने वाले लोगों की संख्या 2050 तक तीन गुना बढ़ जाएगी.
‘भारत की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2022' के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले पलायन के मामले में भारत दुनिया का चौथा सबसे ज्यादा प्रभावित देश है. यहां 2020-21 में 30 लाख से अधिक लोगों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. सबसे अधिक पलायन वाला देश चीन है. यहां मौसम से जुड़े आपदाओं की वजह से 50 लाख से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा.
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण बताती हैं कि जलवायु संकट के प्रभावों को देखते हुए, स्थानीय जलवायु को रहने लायक बनाने और अर्थव्यवस्थाओं की सुरक्षा करने के लिए निवेश करना जरूरी है.
सीएसई ने 15 राज्यों में व्यापक तौर पर अध्ययन किया और पता लगाया कि जहां भी इस तरह का निवेश किया गया वहां पलायन को रोकने में कामयाबी मिली और गांवों को लाभ पहुंचा. दरअसल, जिन गांवों में पानी भंडारण की सुविधा शुरू हुई और स्थानीय लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए पारिस्थितिक संसाधनों का इस्तेमाल किया गया, वहां पलायन करने वाले लोग वापस लौटने लगे.
चक्रवात से बचने के लिए महिलाएं लगा रही हैं मैंग्रोव के पौधे
नारायण ने विशेष रूप से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का उल्लेख किया, जो एक सामाजिक सुरक्षा उपाय है. इसका उद्देश्य ग्रामीण लोगों के 'काम करने के अधिकार' की रक्षा करना है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "आपके पास भविष्य बदलने की क्षमता है. जरूरी नहीं है कि यह जलवायु परिवर्तन की वजह से बढ़ते पलायन की कहानी हो. मनरेगा और ऐसी योजनाओं का उद्देश्य उन पारिस्थितिक बुनियादी ढांचे में निवेश करना है जो स्थानीय आजीविका और सामुदायिक लचीलापन को बढ़ावा देते हैं. यह जलवायु परिवर्तन के दौर में महत्वपूर्ण है.
अंतरराष्ट्रीय विकास संगठन ‘आईपीई ग्लोबल' में जलवायु परिवर्तन और सस्टेनेबिलिटी विभाग के प्रमुख अविनाश मोहंती ने भी कहा कि भारत को जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान, विशेष रूप से पलायन जैसी समस्या को हल करने के लिए गहन आकलन करके, अलग-अलग क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभावों को पहचानने की जरूरत है.
पलायन को गंभीरता से नहीं लिया गया
मोहंती ने डीडब्ल्यू को बताया, "पलायन को सीमित करने के लिए बेहतर नीतियों और कार्य योजनाओं की जरूरत होती है. विशेष रूप से ऐसे क्षेत्र के लिए जहां के लोगों की आजीविका कृषि और पर्यटन जैसे जलवायु संवेदनशील क्षेत्रों से जुड़ी हो. भारत में राष्ट्रीय और राज्य स्तर, दोनों जगहों पर जलवायु से जुड़ी जबरदस्त कार्य योजना है, लेकिन शायद ही इसमें जलवायु की वजह से होने वाले पलायन को प्रमुख समस्या के तौर पर शामिल किया गया है.”
भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां हर साल सबसे ज्यादा लोग विस्थापित होते हैं. उनमें से अधिकांश लोग आपदाओं की वजह से ऐसा करने को मजबूर होते हैं. आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएमसी) के अनुसार, भारत में फिलहाल 1.4 करोड़ लोग ऐसे हैं जो जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित हुए हैं.
हालांकि, इन आपदाओं के बाद विस्थापित होने वाले लोगों को राहत और पुनर्वास के मामले में तुरंत सहायता मिलती है, लेकिन लंबी अवधि के लिए उन्हें उनकी जरूरत के मुताबिक पर्याप्त सहायता नहीं मिलती.
2021 में ‘भारत में जलवायु की वजह से विस्थापन और पलायन' नाम से हुई रिसर्च में पता चला है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से आजीविका का पारंपरिक स्रोत और बुनियादी ढांचा तबाह होने के कारण लोग पलायन कर रहे हैं, ताकि वे गरीबी से बच सकें.
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में अनियमित बारिश और घटते जल स्तर ने लोगों को अपना घर और खेत छोड़कर मैदानी इलाकों में पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया है. उत्तर बिहार के सहरसा जिले में एक विस्थापित समुदाय लगातार आने वाली बाढ़ की वजह से परेशान है.
इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी के संस्थापक चंद्र भूषण ने डीडब्ल्यू को बताया, "देश में लंबे समय से सूखे, बाढ़ और अन्य चरम घटनाओं के कारण लोग अपने राज्य में एक जगह से दूसरी जगह पलायन कर रहे हैं. वे गांव छोड़कर शहरों का रूख कर रहे हैं. वहीं, कुछ लोग दूसरे राज्यों का भी रूख कर रहे हैं. यह व्यापक तौर पर स्वीकार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसी आपदाओं की बढ़ती संख्या के कारण इस तरह के पलायन की प्रकृति भी बदल गई है.”
भूषण ने कहा, "राज्यों ने कोविड-19 के बाद से प्रवासियों के मुद्दों को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है, लेकिन जलवायु की वजह से होने वाले पलायन के लिए कोई अलग नीति या पहल शुरू नहीं हुई है.”