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बीमार बच्चों के लिए जर्मनी के अस्पतालों में जगह नहीं

१५ दिसम्बर २०२२

जर्मनी में बीमार बच्चों को अस्पताल में जगह नहीं मिल रही है. अस्पताल भरे हुए हैं और कुछ मामलों में तो उन्हें दूसरे राज्यों के अस्पताल तक हेलीकॉप्टर से ले कर जाने की नौबत आ गई.

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Kinderstation in einem Krankenhaus durch Inhalation
तस्वीर: picture alliance/imageBROKER

देबोरा जिल्ज जब अपने बेटे आंद्रेयास को सांस लेने में परेशानी की वजह से बर्लिन के अस्पताल लेकर गईं तो उन्हें यह देख कर झटका लगा कि वहां कोई जगह नहीं थी. अस्पताल में मौजूद नर्सों ने आनन फानन में जर्मन राजधानी और पड़ोसी राज्य ब्रांडेनबुर्ग के दूसरे अस्पतालों को फोन करना शुरू किया ताकि उनके 13 दिन के बेटे को किसी और अस्पताल में जगह मिल सके.

33 साल की जिल्ज बताती हैं, "दुर्घटना और आपातकालीन वॉर्ड में एक रात बिताने के बाद हमें यहां जगह मिली." उनके बेटे का वजन एक बार तो उसके जन्म के वक्त रहे 3.1किलो से भी नीचे चला गया था. फिलहाल वह आईसीयू में है. बच्चे ब्रोंकाइटिस की समस्या से जूझ रहा है. जर्मनी में सर्दी आने के साथ ही नवजात बच्चों के सीने में संक्रमण के मामलों में तेजी आ गई है. पहले से ही ज्यादा मरीजों का दबाव झेल रहे अस्पताल इस अतिरिक्त दबाव से परेशान हो गये हैं.

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ब्रोंकाइटिस और दूसरी बीमारियां

दो साल तक कोरोना वायरस की महामारी के दौरान फेसमास्क जैसी चीजों ने देश के बच्चों को सांस के जरिये घुसने वाले वायरसों से बचाये रखा था, अब कई यूरोपीय देशों में ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियां सिर उठा रही हैं. 2022 में यह स्थिति खासतौर से बहुत खराब है क्योंकि नवजात शिशु और छोटे बच्चों के लिए पहली बार ब्रोंकाइटिस की चपेट में आ रहे हैं.

जर्मन अस्पतालों में बच्चों के बेड खाली नहीं
बड़ी संख्या में बच्चे सांस लेने में दिक्कतों से जूझ रहे हैंतस्वीर: Frank May/picture alliance

बर्लिन के सेंट जोसेफ अस्पताल की पेडियाट्रिक केयर टीम इस स्थिति को संभालने के लिए जूझ रही है. छोटे बच्चों का यहीं इलाज हो रहा है. पहली बार उन्हें अपनी छोटी टीम से इस बड़ी समस्या का सामना करना पड़ रहा है. अस्पताल के पेडियाट्रिक और नियोनेटोलॉजी विभाग के प्रमुख बीट्रिक्स श्मिट ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "हम पानी में डूबे हुए हैं. अविश्वसनीय संख्या में बीमार बच्चे, उनका ख्याल रखने वाले संक्रमित लोग और उसी समय में स्टाफ की भारी कमी."

कहीं बिस्तर नहीं तो कहीं स्टाफ की कमी

सेंट जोसेफ अस्पताल में आमतौर पर 80 बीमार बच्चों के लिए बिस्तर की व्यवस्था रहती है. हालांकि स्टाफ की कमी के कारण सिर्फ 51 बिस्तर ही इस्तेमाल किये जा रहे हैं. यहां तक कि इंटेंसिव केयर यूनिट के भी कई बेड काम नहीं आ पा रहे हैं और 18 बिस्तरों पर मरीज मौजूद हैं. ऐसे में कोई नया मरीज तब तक भर्ती नहीं हो सकता जब तक कि यहां से किसी को डिस्चार्ज ना किया जाए. यही आंद्रेयास के साथ हुआ.

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अस्पताल के कर्मचारी दूसरे अस्पतालों में फोन कर खाली बिस्तर का पता लगा रहे हैं. कई बीमार बच्चों को तो हेलीकॉप्टर से मैक्लेनबुर्ग वेस्ट पोमेरेनिया और लोअर सैक्सनी जैसे दूसरे राज्यों के अस्पतालों में ले जाना पड़ा है.

बड़ी संख्या में बच्चे ब्रोनकाइटिस की चपेट में आ रहे हैं
कई अस्पतालों में बच्चों के लिए बेड खाली नहीं हैतस्वीर: Ute Grabowsky/photothek/picture alliance

रॉबर्ट कॉख इंस्टिटयूट के मुताबिक 8.4 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में करीब 95 लाख लोग पिछले हफ्ते किसी ना किसी तरह की सांस की बीमारी की चपेट में आये. इनमें सभी उम्र के लोग शामिल हैं. यह संख्या पिछले साल इसी अवधि की तुलना में बहुत ज्यादा है. यहां तक कि 2017-18 में फ्लू की महाामारी के दौर में भी ऐसा नहीं हुआ था.

अस्पतालों में बच्चों के बिस्तर घटे

श्मिट का मानना है कि बहुत सारी समस्याएं खर्च घटाने के उपायों के कारण हुई हैं. 63 साल के श्मिट ने कहा, "कई सालों से हम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बचत कर रहे हैं. इसका खामिजाया बच्चे उठा रहे हैं."

फिलहाल जर्मनी में बच्चों के लिए अस्पताल में 18,000 बिस्तर हैं. 1995 में यह संख्या 25,000 थी. जर्मनी की आबादी बूढ़ी हो रही है और पड़ोसी यूरोपीय देशों की तुलना में यहां सबसे कम बच्चे हैं. श्मिट का कहना है कि ऐसे में पेडियाट्रिक केयर पर कम निवेश किया जा रहा है. श्मिट ने कहा, "बच्चे ना तो वोट देते हैं और ना ही हम बच्चों का इलाज कर पैसे कमाते हैं."

स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में कटौती करके लागू किये जा रहे सुधार खासतौर से पेडियाट्रिक केयर के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हो रहे हैं. दूसरी तरफ मेडिकल के पेशे में नये लोग जल्दी आना नहीं चाहते हैं. श्मिट जल्दी ही अपना पद छोड़ने की तैयारी में हैं और बताते हैं, "बहुत से पेडियाट्रिशियन आने वाले सालों में रिटायर होने वाले हैं."

युवा पीढ़ी काम और परिवार को एक साथ रखना चाहती है जो इस पेशे के लिए एक बड़ी चुनौती है. यहां काम के घंटे अकसर बहुत लंबे होते हैं और अकसर यह तय करना मुश्किल होता है कि काम कब खत्म होगा. सिर्फ इतना ही नहीं जर्मनी जैसे समृद्ध देश में भी इन पेशेवरों की तनख्वाह उतनी ज्यादा नहीं है. श्मिट ने कहा, "मेरी राय में पैसा बहुत कम है, वो बहुत काम करते हैं, रात में वीकेंड पर."

एनआर/वीके (एएफपी)