मनमौजी मॉनसून बना कृषि के लिए चुनौती
१० जुलाई २०२०पिछले साल मॉनसून देर से आया और जून के अंत तक देश के अधिकतर हिस्सों में बरसात 30% कम हुई लेकिन इस साल हालात अलग हैं. पूरे देश में अब तक औसत से 13% अधिक बरसात हुई है. मौसम विभाग के ताजा आंकड़े बताते हैं कि केरल और लक्षद्वीप को छोड़कर तकरीबन सारे देश में मॉनसून जमकर बरस रहा है. मध्य भारत में तो अब तक औसत से 24% अधिक बरसात हुई है. जहां एक ओर भरपूर बरसात का अनुमान खेती और किसानों के लिए अच्छी खबर है, वहीं दूसरी ओर कृषि और मौसम विज्ञानी लगातार इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि बरसात का मनमौजी स्वभाव आने वाले दिनों में खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर कितनी बड़ी चुनौती या संकट पैदा करेगा.
मॉनसून का अनिश्चित होता ग्राफ
मौसम विज्ञानियों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों में बरसात को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है और उसके पैटर्न में बदलाव आया है. देश के करीब 30 प्रतिशत इलाकों में बारिश कम हो गई है. भारतीय मौसम विभाग ने 1989 और 2018 के बीच 30 साल के आंकड़ों के आधार पर कहा है कि सात राज्यों में कुल सालाना बरसात काफी हद तक घट गई है. इनमें से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मेघालय और नागालैंड ऐसे राज्य हैं जहां मॉनसून की बारिश भी कम हो रही है.
मौसम पर नजर रखने वाली संस्था स्काइमेट वेदर के वाइस प्रेसीडेंट महेश पलावत कहते हैं, "हालांकि साल में कुल बरसात उतनी ही हो रही है लेकिन बारिश वाले दिनों की संख्या कम हो गई है. यानी कम दिनों में अधिक पानी बरस रहा है. इसका मतलब यह है कि या तो हमारे पास घनघोर बरसात वाले दिन हैं या फिर बिल्कुल सूखे दिन.”
कृषि या भूजल संरक्षण के हिसाब से यह हालात काफी चिंताजनक हैं. खासतौर से भारत जैसे देश के लिए जहां करीब 55 प्रतिशत खेती बरसात पर टिकी है और इसीलिए मॉनसून को ‘देश का वित्तमंत्री' कहा जाता है. जानकार कहते हैं पहले धीरे-धीरे कई हफ्तों तक होने वाली रिमझिम बरसात न केवल खेती और बागवानी के लिए मुफीद थी, बल्कि वह ग्राउंड वॉटर रिचार्ज भी करती थी. लेकिन अब उतना ही पानी मूसलाधार बारिश की शक्ल में कुछ ही घंटों में बरस जाता है. इससे न केवल खेती का नुकसान होता है, बल्कि भूजल स्तर भी नहीं उठ पाता.
कई जिले हैं जहां पहले बहुत कम बारिश होती थी लेकिन वहां अब अधिक बरसात होने लगी है और इसी तरह पर्याप्त बरसात वाले कई जिलों में अब बारिश घट गई है. मौसम विभाग के मुताबिक सौराष्ट्र, कच्छ, दक्षिण-पूर्व राजस्थान, उत्तरी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में भारी बरसात वाले दिनों की संख्या बढ़ी है. इसी तरह दक्षिण-पश्चिम उड़ीसा के आंध्र प्रदेश से लगे हिस्से, छत्तीसगढ़, दक्षिण पश्चिम मध्यप्रदेश के इलाकों में भी घनघोर बारिश वाले दिनों का ग्राफ ऊपर गया है.
बदलते पैटर्न का कृषि और खाद्य सुरक्षा पर असर
कृषि विज्ञानी और हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर रामाजनेयुलु कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में बरसात के बदलते पैटर्न से फसलें लगातार प्रभावित हुई हैं और किसानों की फसल बार-बार नष्ट हो रही हैं, "मिसाल के तौर पर अगर मैं आंध्र प्रदेश का उदाहरण लूं, तो वहां ऐसे इलाके हैं जहां दस साल के भीतर सात बार फसल नष्ट हो गई. इसी तरह तेलंगाना में भी यही तस्वीर उभर कर आती है." तो क्या ऐसे हालात भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए संकट पैदा कर सकते हैं? भंडारण को देखते हुए यह ऐसा संकट नहीं लगता जो मुंहबायें खड़ा है.
भारत के पास पर्याप्त खाद्यान्न भंडार हैं लेकिन डॉक्टर रामाजनेयुलु इसे दूसरी नजर से देखते हैं, "यह कहना कि हमारे पास पर्याप्त अनाज का भंडार है, सही सोच नहीं होगी. देश की 60 प्रतिशत आबादी अपने रोजगार के लिए कृषि से सीधे या परोक्ष रूप से जुड़ी है. इनमें से बहुत सारे लोग गरीब और खेतीहर दिहाड़ी मजदूर हैं. अप्रत्याशित मौसमी बदलाव से बार-बार फसल का नष्ट होना इन लोगों की आमदनी को खत्म कर देगा. अगर इनके पास पैसा ही नहीं होगा तो क्या इससे उनकी फूड सिक्योरिटी को खतरा नहीं है?”
किसानों को चाहिए स्पष्ट जानकारी
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि कृषि के फेल होने के लिए बारिश के बदलते पैटर्न को ही सारा दोष देना ठीक नहीं होगा. भारतीय मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक रंजन केलकर कहते हैं कि मॉनसून के वैज्ञानिक अध्ययन का इतिहास केवल 150 साल पुराना है. उनके मुताबिक मॉनसून का ‘चेहरा' हर साल बदलता है लेकिन मूल ढांचा वही रहता है. वे बताते हैं कि किसानों के लिए मॉनसून से जुड़े तकनीकी शब्दों का कोई महत्व नहीं, वे बस इतना जानना चाहते हैं कि आसमान से पानी कब बरसेगा, "यह समझना जरूरी है कि किसान के हाथ में सिर्फ बुआई करने का फैसला है. वह कब बुआई करे और किस फसल को बोए, एक बार बुआई होने के बाद किसान के हाथ में कुछ नहीं रह जाता. अगर फसल बोने के बाद सही समय पर बारिश नहीं हुई, तो किसान के लिए बर्बादी है. अगर फसल देर में बोई जाए, तो अनाज का उत्पादन कम हो जाता है.”
जानकार बताते हैं कि किसानों को यह पता चलना चाहिए कि किस सीजन में, किस जगह, किस फसल के लिए पर्याप्त बरसात होगी. तभी चुनौतीपूर्ण हालात में प्रभावी खेती हो सकती है. केलकर कहते हैं कि जितना पानी धान को चाहिए, उतना सोयाबीन या कपास की खेती के लिए नहीं चाहिए. रणनीति इसी लिहाज से ही बननी चाहिए और इसके लिए मौसम विज्ञानियों का किसानों और कृषि विभाग के कर्मचारियों के साथ समन्वय होना जरूरी है.
कृषि वैज्ञानिक डॉ रामाजनेयुलु इस विचार से सहमत दिखते हैं, "हमें खाद्यान्न की मात्रा पर ही जेर नहीं देना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि जो फसलें उगाई जा रही हैं, वे किसान या उत्पादकों को कितनी आमदनी दे रही हैं. जोर इस बात पर होना चाहिए कि किसान को समृद्ध और अन्न को सुरक्षित कैसे बनाया जाए." इस लिहाज से सिंचाई के तरीकों को बदलने और रसायनों के इस्तेमाल को घटाने की जरूरत होगी. बदलती जलवायु को देखते हुएये ऐसी फसलें चाहिए जो क्लाइमेट रजिस्टेंट हों.
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