लद्दाख में क्यों हो रहे हैं विरोध प्रदर्शन
८ फ़रवरी २०२४5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया था. जम्मू-कश्मीर को राज्य की जगह विधानसभा सहित केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था वहीं लद्दाख के इलाके को एक अन्य केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया, जहां विधानसभा नहीं है.
अब पांच साल बाद लद्दाख के लोग सड़कों पर उतर कर पूर्वोत्तर राज्यों के समान, संविधान की छठी अनुसूची के तहत लद्दाख को राज्य का दर्जा और आदिवासी दर्जे की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं.
लद्दाख में इस वक्त कड़ाके की ठंड पड़ रही है लेकिन वह प्रदर्शनकारियों को सड़क पर उतरने से नहीं रोक पा रही है. इन मांगों को लेकर बीते दिनों लद्दाख में बंद और विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए.
इसके पहले सोनम वांगचुक ने भूख हड़ताल की मगर तब भी लद्दाख की मांग को अनसुना कर दिया गया.
लद्दाख के लोगों की क्या है मांग
पिछले दिनों लेह में एक रैली को संबोधित करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने कहा, "हाल के महीनों में हमें यह पता चला कि ऐसा भी नहीं है, केंद्र सरकार में केंद्र के नेता और मंत्री, गृह मंत्री सब लद्दाख के हितैषी हैं, भला चाहते हैं, देना चाहते हैं. फिर यह पर्दा जो हमारे बीच में केंद्र के साथ आ गया था वह पर्दाफाश होते हुए नजर आया और पता यह चलने लगा कि कुछ औद्योगिक गुट जैसे इंड्रस्ट्रियल लॉबीज, माइनिंग कंपनियां जिनकों लद्दाख की वादियों और पहाड़ों में पैसा दिखता है, जो कल की नहीं सोचते आज की लूट मचाने में लगे हैं, हिमाचल में, उत्तराखंड में, पूरे हिमालय में, जिसका खामियाजा पूरे हिमालय के लोग भुगत रहे हैं. आप देख रहे हैं हिमाचल प्रदेश में क्या हो रहा है. ये अंधाधुंध विकास के नाम पर जो उद्योग का तांता लगा हुआ है, यही आप उत्तराखंड में देख रहे हैं. अब लद्दाख के दरवाजे पर दस्तक देने लगे हैं."
उन्होंने कहा, "जैसे ही लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश घोषित हुआ ऐसे औद्योगिक घरानों, लॉबीज और गुटों ने यहां अपना सर्वेक्षण करना शुरू किया और हमारे जो नेता हमारी आवाज को ले जाने के लिए चुने गए थे वे हमसे ज्यादा उनके असर में आ गए. और उनके साथ मिलकर वे लद्दाख को बेचने लगे. खरीद फरोख्त करने लगे. और वह आपको यह संदेश देने लगे कि यह संरक्षण अब यहां किसी को नहीं चाहिए."
लद्दाख के प्राकृतिक भंडार पर किसकी नजर
साोनम वांगचुक का कहना है कि अगर लद्दाख में संविधान की छठी अनुसूची लागू हो जाती है तो यह लोग मनमानी नहीं कर पाएंगे. उन्होंने कहा कि कुछ ही लोग अपने फायदा के लिए गलत संदेश दे रहे हैं जबकि हजारों लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन पर उतरे हुए हैं.
इस बार बौद्ध-बहुल लेह और मुस्लिम-बहुल कारगिल, जो पारंपरिक रूप से धार्मिक आधार पर विभाजित हैं, दोनों विरोध प्रदर्शन के लिए एकजुट हो गए हैं. यहां तक कि लद्दाख से भाजपा के सांसद जामयांग त्सेरिंग नामग्याल ने केंद्र सरकार से लद्दाख की भूमि, रोजगार और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करने का आग्रह किया है.
हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब लद्दाख ने राज्य के दर्जे और अपनी पहचान की संवैधानिक सुरक्षा को लेकर विरोध प्रदर्शन किया हो. यह निश्चित रूप से 2019 के बाद से इस क्षेत्र में देखे गए सबसे बड़े विरोध प्रदर्शनों में से एक है. यह समय भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हो रहा है.
कभी खुश था लद्दाख और अब आक्रोश है
लद्दाख में लेह जिला 2002-2003 से केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मांग रहा है क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर में बाद की सरकारों द्वारा उपेक्षित महसूस कर रहा था. इस तरह से जब अगस्त 2019 में राज्य का विभाजन हुआ, तो लद्दाख की 2.74 लाख आबादी में काफी उत्साह था. लद्दाख जिसने हमेशा से जम्मू-कश्मीर के नेताओं के प्रभुत्व की शिकायत की थी, उसने इस फैसले को अधिक स्वायत्तता की दिशा में एक जीत के रूप में देखा.
लेकिन यह खुशी जल्द ही गुस्से और हताशा में बदल गई क्योंकि वहां के लोगों को यह एहसास हुआ कि लद्दाख, जो चार विधायकों को पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर विधानसभा और दो को विधान परिषद में भेजा करता था, अब वहां विधायिका नहीं होगी और लद्दाख का शासन अब दिल्ली से नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथ में होगा.
लद्दाख में विरोध प्रदर्शन के केंद्र में चार मांगें हैं, जिनमें पूर्ण राज्य का दर्जा, आदिवासी दर्जा, स्थानीय लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण और लेह और कारगिल जिलों के लिए संसदीय सीट की मांग शामिल हैं. यह घोषणा 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा खत्म करते हुए केंद्र सरकार ने की थी.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने शिकायतों पर गौर करने के लिए पिछले साल गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय के तहत 17 सदस्यीय समिति का गठन किया था. समिति ने 4 दिसंबर, 2023 को लेह और कारगिल के दो संगठनों के साथ अपनी पहली बैठक की, जिसमें केंद्र शासित प्रदेश के लिए "संवैधानिक सुरक्षा उपायों" का वादा किया गया. हालांकि इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली है.