पर्यावरण की रक्षा के लिये 60 घंटे का लॉकडाउन
१९ सितम्बर २०२२बरना नाम के इस पर्व का उद्देश्य लोगों को पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूक करना हरियाली को बचाना होता है. थारू नेपाल और भारत के सीमावर्ती तराई क्षेत्र में रहने वाली जनजाति है. बिहार के पश्चिम चंपारण जिले के बगहा और गौनाहा प्रखंड के करीब दो सौ से अधिक गांवों का इलाका थरूहट के नाम से जाना जाता है, जहां इस जनजाति की करीब तीन लाख आबादी रहती है. स्वभाव से मिलनसार और अतिथि सत्कार करने वाले थारू खेती-किसानी करने वाले समाज के अति पिछड़े लोग हैं. पेड़-पौधे और जंगल से इनकी जिंदगी चलती है और थारू प्रकृति को ही अपना देवता मानते हैं.
प्रकृति से असीम निकटता
समुदाय के लोगों का मानना है कि बारिश के मौसम में प्रकृति पौधों का सृजन करती है. किसी नये पौधे को कोई नुकसान नहीं पहुंचे, इसलिए वे प्रकृति की रक्षा का पर्व मनाते हैं. इसी का नाम स्थानीय भाषा में बरना है. थरूहट के इलाके में जितने गांव हैं, वहां बैठक कर बरना की तिथि तय की जाती है. अमूमन अगस्त-सितंबर के महीने में इसे मनाया जाता है. सबसे पहले बरखाना यानी पीपल के पेड़ की पूजा की जाती है. गांव के ब्रह्मस्थान पर वनदेवी की पूजा के बाद पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया जाता है.
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इस दौरान पीपल के पेड़ के चारों ओर खर-पतवार बांधा जाता है और गुरु यानी सोखा मंत्र का उच्चारण करते हैं. भोग लगाकर महिलाएं प्रकृति की देवी से समुदाय की रक्षा का वर मांगती हैं. 60 घंटे बाद फिर से पीपल के पेड़ के पास पूजा की जाती है और पेड़ से बांधे गए खर-पतवार हटा दिए जाते हैं. इसके बाद लोगों की सामान्य दिनचर्या शुरू हो जाती है. पर्व की समाप्ति पर आदिवासी परंपरा के गीत-संगीत व नृत्य भी होते हैं.
बगहा-2 प्रखंड के थारू बहुल मझौआ गांव के प्रमुख शंभू नाथ राय कहते हैं, ‘‘भंडारी द्वारा गांव में बरना लगने की घोषणा के बाद गांव में सभी गतिविधियां बंद हो जाती हैं. ना तो कोई खेत पर जा सकता है और ना खेती-बारी कर सकता है यहां तक कि मजदूरी भी नहीं. जिससे कि किसी भी हरे पौधे को कोई नुकसान ना पहुंच सके.''
लॉकडाउन की पुरानी परंपरा
बरना के दौरान पूरे गांव में अघोषित लॉकडाउन की स्थिति रहती है. ना कोई गांव में आता है और ना ही कोई अपने घर से बाहर निकलता है. 60 घंटे तक लोग खुद को पेड़-पौधे, खर-पतवार व हरियाली से दूर रखते हैं. इनका मानना है कि रोजमर्रा की गतिविधि अगर रोकी नहीं गई तो पेड़-पौधों को नुकसान पहुंच सकता है. गलती से भी किसी पौधे पर पांव ना पड़ जाए, इसका वे पूरा ख्याल रखते हैं.
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गांव में बरना की तारीख तय होने के बाद लोग तैयारी शुरू कर देते हैं. परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था तो करते ही हैं, पालतू मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था कर लेते हैं, ताकि उस अवधि में घर से बाहर नहीं निकलना पड़े. इस बीच महिलाएं घर में सब्जी तक नहीं काटतीं हैं. बरना की अवधि के दौरान कोई पेड़-पौधों को कहीं तोड़ ना दे, इसके लिए गांव के चार दिशाओं और चार कोनों पर नजर रखने के लिए आठ लोगों को तैनात किया जाता है, जिन्हें डेंगवाहक कहते हैं.
हाथों में लाठी लिए ये डेंगवाहक दूर से ही गांव की रखवाली करते नजर आते हैं. इस दौरान किसी ने अगर एक पत्ता भी तोड़ा तो उस पर 500 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है. बगहा-2 प्रखंड की बिनवलिया गांव के गुरु यानी सोखा छांगुर महतो कहते हैं, ‘‘हमारी जिम्मेदारी आपदा से बचाव के लिए धार्मिक अनुष्ठान संपन्न कराने की होती है. बरना में हम लोग वनदेवी को खुश रखने के लिए वनस्पति की विधिवत आराधना करते हैं.'' वहीं, डेंगवाहक नंदलाल महतो कहना है, ‘‘अक्षत (हल्दी मिला कच्चा चावल) को अभिमंत्रित करके चार डेंगवाहक चारों दिशाओं में गांव की सीमा को 48 घंटे के लिए बांध देते हैं. समुदाय को विश्वास है कि यह अनुष्ठान आपदा या रोग से गांव को बचाता है.''
पीएम मोदी ने भी की इस प्रकृति प्रेम की चर्चा
दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में थारू समाज के इस अद्भुत प्रकृति प्रेम की चर्चा की थी. उन्होंने अपने संबोधन में इस पर्व की पूरी प्रक्रिया का जिक्र करते हुए कहा था कि प्रकृति की रक्षा के लिए थारू समाज ने इसे अपनी परंपरा का हिस्सा बना लिया है. प्रधानमंत्री ने देशवासियों से अपील की थी कि वे भी आगे बढक़र प्रकृति की रक्षा के लिए जरूरी पहल करें.
भारतीय थारू कल्याण महासंघ के केंद्रीय अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘‘हमारे समाज में आदिकाल से बरना का पर्व मनाया जाता है. इस पर्व में हम पर्यावरण की पूजा करते हैं. आवश्यक तैयारी एक दिन पहले ही कर ली जाती है.''
वाल्मीकि नगर से मैनाटांड़ तक नेपाल के तराई क्षेत्र के 213 गांवों में फिलहाल अलग-अलग तिथियों पर इसका आयोजन किया जाता है, किंतु अगले वर्ष से पूरे इलाके में एक ही दिन इस पर्व को मनाने पर विचार किया जा रहा है. शंभू नाथ राय कहते हैं, ‘‘थरूहट के इलाके में एक साथ एक दिन यह पर्व मनाए जाने पर हमारा संगठन भी दिखेगा और इस प्रभाव भी व्यापक होगा.''
पर्यावरण कार्यकर्ता राम इस्सर प्रसाद कहते हैं, ‘‘एक व्यापक कार्ययोजना के तहत ऐसे पर्वों के प्रचार-प्रसार की जरूरत है, ताकि समाज के हर वर्ग के लोगों की सहभागिता सुनिश्चित की जा सके. तभी हम प्रकृति की वास्तव में रक्षा कर सकेंगे.''