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समाजजर्मनी

सरकारी कंपनियां बेचने से किसका फायदाः जर्मनी का अनुभव

२५ अक्टूबर २०२१

भारत में सरकारी कंपनियों के निजीकरण का मुद्दा विवादों के घेरे में रहता है. जानिए, जर्मनी का इस बारे में अनुभव कैसा रहा है. उसके पास निजीकरण का लंबा अनुभव है.

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तस्वीर: DHL

पलट कर देखे तो जर्मनी के पास छह दशक से भी ज्यादा पुराना सरकारी कंपनियों के निजीकरण का अनुभव है. साल 1960 में ही फॉक्सवागन जैसी बड़ी कंपनी को या वेबा जैसी माइनिंग और बिजली कंपनी को आंशिक तौर पर प्राइवेट शेयरधारकों के हाथों में सौंप दिया गया था.

वुपरटाल विश्वविद्यालय के डेटलफ जाक का मानना है कि केंद्र सरकार की प्राथमिकता सुस्त सरकारी कंपनियों को और प्रभावी बनाना नहीं थी. जर्मनी और यूरोप में प्राइवेटाइजेशन के इतिहास पर साल 2019 में किताब लिख चुके यह राजनीति विज्ञानी विस्तार से बताते हैं, "1960 के दशक में चली यह प्राइवेटाइजेशन की लहर मुख्यत: इस विचार पर आधारित थी कि सभी तरह की सरकारी कंपनियों की कुछ हिस्सेदारी आम जनता को बेची जाए."

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यह विचार जर्मन जनता की रुचि स्टॉक मार्केट में और बढ़ाने से जुड़ा था. माना जा रहा था कि नए शेयरहोल्डर हर तरह के लोग होंगे और वे सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था में और भाग लेंगे.

टेलीकॉम और डॉयचे पोस्ट की सीख

डॉयचे टेलीकॉम के 1996 में शेयर मार्किट में जाने के 30 साल बाद भी सरकारी कंपनी के शेयर को ‘जनता के शेयर' के तौर पर ही मार्केट किया जाता है. उस समय टेलीकॉम के प्रमुख रहे रॉन सोमर बताते ने यह वादा भी किया था कि ये शेयर किसी पूरक पेंशन जितने ही सुरक्षित होंगे.

लेकिन 2010 में टेक्नोलॉजी बुलबुले के फूटने के बाद ऐसे वादे पूरी तरह से गायब हो गए. जाक ने लिखा है, "इस प्रक्रिया में नागरिकों को भौतिक समृद्धि की हर श्रेणी में भाग लेने का मौका देने के लिए राज्य की संपत्तियां बेचने का विचार भी शामिल था."

उस समय स्टॉक मार्केट में आए नए लोगों को टेलीकॉम के शेयर खरीदने के लिए तेजी से सुझाव दिए गए. इस दौरान उन्हें यह नहीं बताया गया कि एक ही शेयर पर पर्याप्त पूंजी लगा देना पर्याप्त नहीं होता जबकि यह तथ्य कि निवेशक को अलग-अलग तरह की इंडस्ट्री और देशों की कई अलग-अलग सिक्योरिटीज पर निर्भर रहना चाहिए, इसे अक्सर ही उस समय के स्टॉक मार्केट के बुखार में दबा दिया गया. इसका नतीजा नुकसान, निराशा और हजारों-लाखों नए निवेशकों के खोए विश्वास के रूप में दिखा.

इसके उलट डॉयचे पोस्ट के प्राइवेट निवेशकों के लिए स्थितियां बेहतर रहीं. यह कंपनी जिसे नवंबर, 2000 की शुरुआत में ही आंशिक तौर पर प्राइवेटाइज कर दिया गया था, लंबे समय से अपनी अमेरिकी सब्सिडियरी डीएचएल के साथ बढ़िया मुनाफा बनाती आ रही है. यहां पर कंपनी को ऑनलाइन शॉपिंग के चलते अमेजन और दूसरी ऑनलाइन विक्रेताओं के पार्सल डिलीवर करके फायदा हुआ है.

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एक और ट्रेंड जो कि पिछले 20 सालों से दिख रहा है, वह यह है कि सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन के दौरान शेयर खरीदने के लिए लगातार संस्थागत निवेशक आगे आ रहे हैं. जाक जोर देते हैं, "आज प्राइवेटाइजेशन मुख्यत: इस विचार के साथ आगे बढ़ रहा है कि सरकारी कंपनियों को और कुशल बनाना है. निवेशक पूजी बाजार से हैं. यह बिल्कुल अलग तर्क है."

कुछ जीते और कुछ हारे

जाक लिखते हैं, "कुल मिलाकर जर्मनी में सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन के अनुभव बहुत अलग रहे हैं. खासकर जब बात विजेताओं और पराजितों की आती है. हारने वालों में सबसे मुख्य बात यह रही कि पिछले 20-30 सालों में कई कर्मचारी प्राइवेटाइजेशन के गलत पाले में रहे. जो लोग पहले सरकारी कंपनियों में काम कर रहे थे, उन्हें इस प्रक्रिया में हारा माना जाएगा. कुशलता बढ़ाने में कई बार छंटनी होती है और इस बीच नौकरियों में कमी आती है."

खासकर 1990 के बाद पूर्वी जर्मनी में कई सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइज होने के साथ प्रतिद्वंद्विता का बढ़ना सबसे बड़ी वजह थी. जाक सोचते हैं कि ऐसी कंपनियों में से कुछ का प्राइवेटाइजेशन उनके खात्मे को नहीं रोक सका क्योंकि बर्लिन की दीवार गिरने के बाद उन्हें अचानक ही प्रतिद्वंद्विता को लेकर झटका लगा. वह कहते हैं, "एक उदाहरण यह है कि अचानक शिपयार्डों को दक्षिण कोरिया और ताइवान के शिपयार्डों से मुकाबला करना पड़ा."

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दूसरी ओर डेटलफ जाक करदाताओं को इसके परोक्ष विजेताओं के तौर पर देखते हैं क्योंकि सरकारी कंपनियों की बिक्री का मतलब जनता की जेबों में पैसों का पहुंचना था. साथ ही, कंपनियों के प्राइवेट होने से कई अधिकारियों के वेतन में बाजार के हिसाब से बढ़ोतरी हुई.

हमेशा प्राइवेटाइजेशन का मतलब नौकरियां जाना नहीं

यह बात कि प्राइवेटाइजेशन से हमेशा नौकरियां नहीं जातीं, तब साफ हो जाती है जब कचरा प्रबंधन के बारे में सोचा जाए. इसकी वजह म्युनिसिपल कचरा प्रबंधन कंपनियों में सामूहिक समझौते वाले यूनियन के तहत आने वाले कर्मचारियों का ज्यादा होना था.

प्राइवेटाइजेशन के बाद भी हर तरह के कर्मचारियों में कोई खास कमी नहीं आई. जाक ने कहा, "कर्मचारियों ने यहां अपना काम किया. और अगर उनके मजबूती से एक संगठन बनाने में सफल होने को देखें तो कचरा प्रबंधन एक सकारात्मक उदाहरण है, कम से कम जर्मनी के कुछ पश्चिमी हिस्सों में."

वह म्युनिसिपल और कॉपरेटिव हाउसिंग एसोसिएशन के प्राइवेटाइजेशन को एक बड़ी गलती के तौर पर देखते हैं. उनके शब्दों में, "पीछे मुड़कर देखें तो यह एक गलती थी. लेकिन यह जरूर कहा जाना चाहिए कि यह ऐसी दूसरी प्रवृत्तियों के ही साथ चलती है, जैसे पर्याप्त अपार्टमेंट नहीं बनाए गए थे."

जाक प्रमुख जर्मन शहरों में मौजूदा आवासों की कमी और किराए में भयंकर बढ़ोतरी के लिए स्थानीय और राज्य सरकार के अधिकारियों को भी दोषी मानते हैं. वह लिखते हैं, "उन्होंने इस पर समय पर ध्यान नहीं दिया और समय पर इसे सुधारने के कदम नहीं उठाए. आवास क्षेत्र में निजीकरण से आवास लागत तेजी से बढ़ी लेकिन यही निर्णायक वजह नहीं थी."

जब सब बिक क्या तो बचा क्या?

ऐसा भी हुआ कि जर्मन सरकार ऐसी कंपनी नहीं बेच सकी, जिसे वह बेचना चाहती थी. सालों से वह राष्ट्रीय रेलमार्ग डॉयचे बान के प्राइवेटाइजेशन के बारे में सोच रही थी. कंपनी को कागजों पर बेहतर दिखाने के लिए पिछले कुछ सालों में रेल नेटवर्क में बहुत कम निवेश किया गया था.

आज ट्रेन का सफर देरी भरा, ट्रेनें रद्द होने वाला और जरूरत से ज्यादा भीड़-भाड़ वाला हो सकता है. ऐसे सारे प्रयास विफल रहे क्योंकि अब कंपनी को सार्वजनिक बनाने की कोई बात नहीं चल रही है और अब बड़े निवेश कार्यक्रमों के जरिए इसके बुनियादी ढांचे को ठीक किए जाने की कोशिशें हो रही हैं.

आज तक इस बात को लेकर गरमागरम बहसें चलती हैं कि कोई देश अपनी सबसे अच्छी व्यावसायिक संपत्तियां बेच दे, तो उसके पास क्या बचता है. क्या ऐसा करने से कोई समाज पूरी तरह से गरीब और कम सक्षम हो जाता है. क्या यह सही फैसला होता है?

डेटलफ जाक मानते हैं कि यह कदम समाज के कई भागों को फैसले लेने में कम सक्षम बना देता है. उनका निष्कर्ष है, "लेकिन यह उन्हें गरीब नहीं बनाता." उनके लिए लोगों को यह सोचना बंद कर देना चाहिए कि पैसे हमेशा एक जैसे बने रहते हैं. आखिरकार पूंजी बाजार में पैसा गायब नहीं होता बल्कि वापस अर्थव्यवस्था में ही बह जाता है.

रिपोर्टः थोमास कोलमान

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