क्लाइमेट फंड क्या है और कहां से आता है पैसा
२२ नवम्बर २०२३जीवाश्म ईंधन औद्योगिक क्रांति और कई देशों की आर्थिक उन्नति का आधार रहे हैं लेकिन तेल, गैस और कोयला जलाने से ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं जो वातावरण को गर्म और धरती की जलवायु को खराब करती हैं. ऐतिहासिक रूप से, उन्नत औद्योगिक देशों ने मानव-प्रेरित जलवायु संकट में सबसे अधिक योगदान दिया है क्योंकि उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित करने के लिए लंबे समय तक जीवाश्म ईंधन जलाया है.
कई विश्लेषकों, कार्यकर्ताओं और कम आय वाले देशों के प्रमुखों का कहना है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप जैसे बड़े ऐतिहासिक उत्सर्जकों को बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन के लिए बिल का भुगतान करना चाहिए.
लेकिन इसका क्या मतलब है ?
क्लाइमेट फाइनेंस क्या है
क्लाइमेट फाइनेंस या जलवायु वित्त के पीछे एक विचार यह है कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु तबाह करने वाले फॉसिल ईंधन से दूर ले जाने में सहायता की जाए. दूसरी बात यह है कि अमीर देशों को बदलती जलवायु के अनुरूप ढलने के लिएवैश्विक तापमान से सबसे अधिक प्रभावित गरीब देशों की मदद करनी चाहिए.
1992 के विश्व जलवायु सम्मेलन के वक्त से ही इन विचारों ने किसी ना किसी रूप में, जलवायु पर वैश्विक सौदेबाजी में केंद्रीय भूमिका निभाई है.
लेकिन क्लाइमेट फाइनेंस आमतौर पर, 2009 के कोपेनहेगन यूएन जलवायु सम्मेलन में औद्योगिक देशों द्वारा किए गए इस वादे के साथ जुड़ा है कि वे 2020 तक वार्षिक 100 अरब डॉलर (95 अरब यूरो) जुटाएंगे. 2015 में पेरिस में, प्रतिनिधियों ने इस राशि को 2025 तक प्रतिवर्ष जारी रखने और फिर एक नई संख्या को स्थापित करने के लिए सहमति दी.
जलवायु वित्तीय सहायता कैसे लागू की जाएगी?
100 अरब डॉलर के वादे को लागू करने के लिए औद्योगिक रूप से उन्नत देशों ने मुख्यत: सार्वजनिक धन से पैसा देने की बात कही है. लेकिन उनका इरादा निजी निवेश के माध्यम से नकद जुटाना है. दाता देशों से आने वाले सार्वजनिक धन से क्लाइमेट फाइनेंस का बड़ा हिस्सा हासिल होता है. इसका लगभग 50 फीसदी हिस्सा, आर्थिक सहायता के तौर पर, दाता देशों से सीधे प्राप्तकर्ता देशों को मिलता है. दूसरा हिस्सा बहुपक्षीय धन है, जिसका मतलब है कि कई राज्य कई दूसरे राज्यों को धन देते हैं.
यह पैसा या तो मल्टीलैटरल यानी बहुपक्षीय बैंकों के माध्यम से चलाए जाने वाले जलवायु कार्यक्रमों से आता है, जैसे कि वर्ल्ड बैंक और अफ्रीकी और एशियाई विकास बैंक या फिर बहुपक्षीय जलवायु कोषों के माध्यम से दिया जाता है.
हरित जलवायु कोष (जीसीएफ)
बहुपक्षीय धन कोष में सबसे प्रमुख ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) है. ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) के संसाधनों का उपयोग करके जलवायु परिवर्तन की रफ्तारको कम करने की कोशिश हो सकती है. इन उपायों में अक्षय ऊर्जा का विस्तार, चरम मौसमी घटनाओं और ग्लोबल वॉर्मिंग को अपनाना शामिल है.
अब तक, दाता देशों ने लगभग 20 अरब डॉलर का वादा किया है. फिलहाल 12.8 अरब डॉलर की परियोजनाओं के लिए मंजूरीमिल चुकी है और 3 अरब से ज्यादा खर्च हो चुका है. अधिकतर योजनाएं अफ्रीका और एशिया में हैं, लेकिन कुछ योजनाएं लैटिन अमेरिका, कैरेबियन और पूर्वी यूरोप में भी हैं. हर चार वर्ष पर दाता देशों से यह आशा रहती है कि वे योजना को फिर लागू करेंगे.
आधा पैसा लोन के रूप में और आधा अनुदान के रूप दिया जाता है जिसको वापिस देने की जरूरत नहीं है.
अडैप्टेशन फंड
कुल धनराशि में से कुछ हिस्सा अडैप्टेशन यानी जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बदलाव लागू करने के लिए दिया जाता है. यह अपेक्षाकृत कम होता है और इसकी कोई नियमित साइकिल नहीं है. दाता देश जब दे सकें या देना चाहें तब धन देते हैं. इसका मकसद ऐसी परियोजनाओं को सपोर्ट करना है जो जलवायु संकट के नतीजों से जूझने के लिए देशों को अनुकूल स्थितियां पैदा करने में मदद करती हैं. इसमें बाढ़ से निपटना या गर्मी झेल सकने वाले पेड़ लगाना शामिल है.
विकासशील देशों को यह पैसा लोन के बजाए, सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है. यह मददगार है क्योंकि अडैप्टेशन के लिए उठाए जा रहे कदमों से पैसे कमाने की संभावनाएं नहीं होती. जबकि पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े कदम जैसे बिजली पैदा करने के लिए पवन चक्कियां या सोलर पैनल बना कर बेचे जा सकते हैं.
सबसे गरीब देशों का फंड
यह फंड दुनिया के 46 सबसे गरीब देशों को मिलने वाला पैसा है. यह पूरी तरह दान पर निर्भर फंड है जिसे वापिस लौटाना नहीं होता. इसका मकसद आपातकालीन क्लाइमेट अडैप्टेशन के उपायों में मदद करना है. अब तक इस फंड के जरिए 360 से ज्यादा परियोजनाओं में पैसे दिए गए हैं.
100 अरब डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस का क्या हुआ
यह वादा पूरा नहीं हुआ है. ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक, 2020 तक केवल 83 अरब डॉलर ही अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट फाइनेंस में डाले गए. ऑक्सफैम जर्मनी में जलवायु परिवर्तन और जलवायु नीति की अधिकारी यान कोवालसिग कहती हैं, "पहले तो, 83 अरब डॉलर बहुत बड़ी रकम लगती है, लेकिन ग्लोबल साउथ में गरीब देशों की जरूरतें इससे कहीं ज्यादा है. अध्ययनों के जरिए, हमें मालूम है कि 2030 तक, जलवायु परिवर्तन के हिसाब से अडैप्ट करने की लागत 300 अरब डॉलर से ज्यादा होगी और इसमें जलवायु संकट से निपटने के कदम शामिल नहीं हैं."
हालांकि इंटरनेशनल डेवलपमेंट संस्थाओं का कहना है कि यह आंकड़ा भी ज्यादा ही लगता है. ऑक्सफैम के आंकड़े बताते हैं कि 2020 में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आर्थिक सहायता में, ज्यादा से ज्यादा 24.5 अरब डॉलर दिए गए. इसकी वजह यह है कि जिन परियोजनाओं को लिस्ट किया गया, उनका असर काफी कम होगा.
क्लाइमेट फाइनेंस का विवादास्पद पहलू
दशकों से, विकासशील, नव औद्योगिक और औद्योगिक देशों के बीच यह बहस चल रही है कि हीटवेव और सूखे के चलते जलवायु संकट की वजह से हो रहे नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी किसकी है. विकासशील देश इस दिशा में काम करने के लिए अतिरिक्त फंड चाहते हैं. दाता देशों को डर है कि उन्हें इस भरपाई के लिए, इंटरनेशनल क्लाइमेट फाइनेंसिंग के मौजूदा दायरे से कहीं ज्यादा देना पड़ा सकता है.
इसी वजह से डोनर देश चाहते हैं कि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वालेचीन जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों को भी यह खर्च उठाना चाहिए. कुल मिलाकर नुकसान और जिम्मेदारी की इस बहस में बहुत सारे सवालों के जवाब अब भी बाकी हैं.
जलवायु जोखिमों के खिलाफ ग्लोबल शील्ड
साल 2022 में कॉप 27 के दौरान अमीर देशों के समूह जी7 और वी20 देशों के गुट ने जलवायु जोखिमों के खिलाफ ग्लोबल शील्ड की शुरुआत की थी. वी20 में वह 70 देश शामिल हैं जो जलवायु संकट से सबसे ज्यादा खतरे में हैं. इस शील्ड के मुताबिक, किसी प्राकृतिक आपदा के वक्त एक निश्चित राशि तुरंत दी जाएगी. जर्मनी इस फंड में 17 करोड़ यूरो का योगदान दे रहा है. यह उस स्थिति में मददगार होगा जब कहीं से कोई सहायता ना मिल रही हो.
इस शील्ड से क्लाइमेट रिस्क इंश्योरेंस में भी पैसे देने का प्रावधान है, जिसका इस्तेमाल करके छोटे किसान बीमा ले सकते हैं ताकि फसल नष्ट होने की स्थिति से बच सकें. हालांकि, विकास संगठनों का मत है कि जलवायु से जुड़े जोखिमों के खिलाफ इंश्योरेंस हमेशा सही उपाय नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि इंश्योरेंस पॉलिसी अक्सर ऐसी स्थितियों के लिए कवर देती है, जो आसामान्य हों, लेकिन तेजी से गर्म होती दुनिया में इस तरह की आपदाएं आम होती जा रही हैं. इसका मतलब है कि चरम घटनाएं होती रहेंगी.