जर्मनी के किसान इतने नाराज क्यों हैं?
१२ जनवरी २०२४राजधानी बर्लिन की सड़कों पर ट्रैक्टर दौड़ रहे हैं और हाई-वे पर जाम लग रहा है. जर्मनी का ये मौजूदा नजारा अक्सर पड़ोसी देश फ्रांस में दिखता है. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों से जर्मनी के किसान फिर से अपनी ताकत दिखा रहे हैं.
पिछले साल जर्मनी की सेंटर-लेफ्ट गठबंधन सरकार ने बताया कि वह डीजल सब्सिडी और कृषि वाहनों पर टैक्स में मिलने वाली छूट को खत्म करने की योजना बना रही है. इसके विरोध में दिसंबर 2023 के अंत में किसान प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरने लगे.
किसानों के आक्रोश के बाद जर्मन सरकार ने कहा कि वह दो साल के भीतर ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर देगी और ट्रैक्टरों के लिए टैक्स छूट को बरकरार रखा जाएगा. इस आंशिक राहत से प्रदर्शनकारी संतुष्ट नहीं हुए हैं.
जर्मनी के कृषि क्षेत्र का हाल कैसा है?
हाल ही में खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से जर्मन किसानों को फायदा हुआ है. जर्मन किसान संघ डीबीवी के मुताबिक, एक पूर्णकालिक फार्म ने 2022-23 में तकरीबन सवा लाख डॉलर के बराबर मुनाफा कमाया, जो कि केवल दो साल के भीतर करीब 45 फीसद की वृद्धि है.
खेती एक मुश्किल और चौबीसों घंटे व्यस्त रखने वाला काम है. डीबीवी ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि कसाई की दुकानों या बेकरीज की तुलना में यह कुछ खास कमाई नहीं है.
खेतों से अक्सर तमाम ऐसे परिवारों के अन्य गैर-वेतनभोगी सदस्यों को भी रोजगार मिलता है, जो वहां काम करते हैं. हालांकि उन्हें ध्यान में रखने पर भी जर्मनी में औसत वेतन की तुलना में औसत मुनाफा अभी भी ठीक ही दिखाई देता है. राज्य की डीजल सब्सिडी से एक पूर्णकालिक फार्म को सालाना कई हजार यूरो की बचत होती है, जो उस मुनाफे का एक छोटा सा अंश मात्र है.
जर्मन कृषि कितनी महत्वपूर्ण है?
जब आप औद्योगिक महाशक्ति जर्मनी के बारे में सोचते हैं, तो खेती ऐसी चीज नहीं जो पहले-पहल दिमाग में आती हो. जर्मनी में खेती से देश की जीडीपी का महज एक फीसद ही आता है, जो कि पश्चिम में फ्रांस और पूर्व में पोलैंड से भी कम है.
हालांकि जब दूध, सूअर का मांस और आलू की बात आती है, तो इस मामले में जर्मनी यूरोपीय संघ के बाजार में अग्रणी है. पिछले दशक में जर्मनी ने कई अन्य प्रकार की उपज के बाजार में भी अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई है.
लेकिन खेती अर्थशास्त्र से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. जर्मन फार्मर्स एसोसिएशन के प्रमुख योआखिम रूकवीड का तर्क है कि अब न सिर्फ किसान परिवारों का भविष्य खतरे में है, बल्कि देश का भविष्य और इसकी खाद्य सुरक्षा पर भी जोखिम है.
योजनाबद्ध कटौतियों पर इतनी प्रतिक्रिया क्यों?
जर्मन डेयरी फार्मर्स एसोसिएशन (बीडीएम) के कार्स्टन हान्जन के मुताबिक, विरोध प्रदर्शन का मुद्दा ‘कृषि डीजल और वाहन कर पर छूट से कहीं ज्यादा है.' उनका कहना है कि सब्सिडी में कटौती की घोषणा महज एक तिनका भर थी, जिसने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया.
जर्मन कृषि क्षेत्र ऊपरी तौर पर फलता-फूलता नजर आता है, लेकिन बारीकी से देखा जाए तो तस्वीर स्पष्ट होती है. खेती से होना वाला लाभ कृषि व्यवसाय के प्रकार और खेत के आकार के अनुसार तय होता है. पिछले एक दशक से अधिक समय से, जर्मनी में खेतों की संख्या प्रति वर्ष एक फीसद से ज्यादा की दर से घट रही है. इनमें अधिकतर छोटे खेत हैं. बड़े खेतों की संख्या बढ़ रही है.
जर्मन सरकार 2024 के अपने बजट में 1,700 करोड़ यूरो की कमी को दूर करना चाहती है. ऐसे में कई किसानों को लगता है कि उनसे यह उम्मीद की जा रही है कि इसका कुछ बोझ वो भी उठाएं, जो कि कहीं से भी ठीक नहीं है.
जर्मन किसान संघ इस बात पर अड़ा है कि सरकार को 2026 तक डीजल सब्सिडी हटाने की अपनी योजना वापस ले लेनी चाहिए. बवेरिया में जर्मनी के सेंटर-राइट क्रिश्चियन सोशल यूनियन की बैठक के मौके पर डीबीवी प्रमुख योआखिम रूकवीड ने कहा कि इस योजना को वापस न लेने का मतलब होगा जर्मन कृषि के लिए धीमी मौत सुनिश्चित करना.
सेंटर-राइट ब्लॉक के लिए यूरोपीय संसद के सदस्य नॉर्बेट लिंस ने डीडब्ल्यू को बताया कि कृषि ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना किसानों की प्रतिस्पर्धात्मकता पर हमला है. लेकिन तस्वीर यहां भी जटिल है.
क्या जर्मन किसान घाटे में हैं?
यूरोप की कॉमन एग्रीकल्चरल पॉलिसी (सीएपी) का 2021-2027 के लिए बजट करीब 38,700 करोड़ यूरो का है. यह बजट एक तरह से नीतियों, विनियमों, वित्तीय साधनों और निधियों का एक समूह है. यूरोपीय संघ की सब्सिडी कृषि भूमि की मात्रा के अनुसार आवंटित की जाती है, इसलिए बड़े सदस्य देशों जैसे- फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, इटली और पोलैंड को सबसे ज्यादा मिलता है.
जर्मनी को प्रति वर्ष 600 करोड़ यूरो मिलते हैं. इसका ज्यादातर हिस्सा खेत के आकार के आधार पर किसानों को सीधे भुगतान के रूप में खर्च होता है. इसलिए बड़े खेतों को, जिनकी स्थिति अक्सर छोटे खेतों से बेहतर होती है, ज्यादा राशि मिलती है.
यूरोपीय संसद में ग्रीन पार्टी के सांसद मार्टिन हॉसलींग एक किसान हैं. उनके दो बेटे अब मध्य जर्मनी में अपना पारिवारिक फार्म चलाते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि जर्मन किसान अन्य यूरोपीय किसानों की तुलना में बेहतर या बदतर स्थिति में नहीं हैं, भले ही यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच मतभेद हों. प्रत्येक राज्य की अपनी रणनीतिक योजना होती है और उसे अधिकार होता है कि यूरोपीय संघ से मिली रकम को कैसे आवंटित किया जाए.
यूरोपीय संघ के फंड के अलावा, जर्मन किसानों को राष्ट्रीय और संघीय स्तर पर भी सब्सिडी मिलती है. किसी भी तरह की तुलना से पहले जमीन की कीमतों, खुदरा बाजार और राष्ट्रीय नीति को भी शामिल किया जाना चाहिए.
जर्मनी का न्यूनतम वेतन, जिसे हाल ही में बढ़ाकर 12.41 यूरो प्रति घंटा कर दिया गया है, पोलैंड की तुलना में करीब ढाई गुना ज्यादा है. सीडीयू के यूरोपीय संसद में सदस्य नॉर्बर्ट लिंस कहते हैं कि न्यूनतम वेतन की इस तय सीमा की वजह से जर्मन फल उत्पादकों और मौसमी श्रमिकों पर निर्भर दूसरे लोगों को भारी नुकसान पहुंचता है.
लेकिन यह भी सही है कि यूरोपीय संघ के 18 देशों में डीजल पर लगने वाला टैक्स जर्मनी की तुलना में भले ही कम हो लेकिन नीदरलैंड, पोलैंड और फ्रांस में यह और भी ज्यादा है.
आगे क्या रास्ता है?
यूरोपियन संसद में ग्रीन पार्टी के सांसद हॉसलींग का कहना है कि कृषि को अन्य क्षेत्रों की तरह ही जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने की जरूरत है. साथ ही, हॉसलींग चाहते हैं कि इस दिशा में आगे बढ़ने की सबसे अच्छी राह यही है कि नीति निर्माताओं और किसानों के बीच ज्यादा-से-ज्यादा संवाद हो.
हॉसलींग का कहना है, "किसान एक दिन से दूसरे दिन तक डीजल के बिना काम नहीं कर सकते. मैं एक दिन में ट्रैक्टर को डीजल की बजाय बिजली से चलने वाला नहीं बना सकता. परिवर्तन प्रक्रिया को और अधिक मजबूती से वित्त पोषित और समर्थित होना होगा.” हॉसलींग के मुताबिक, पिछले वर्षों में इस बारे में बहुत कम बताया गया है कि क्यों कुछ करने की जरूरत है और इसे कैसे किया जा सकता है.
वहीं यूरोपियन संसद में सीडीयू सांसद नॉर्बर्ट लिंस कहते हैं कि नए नियमों को लागू होने में समय लगता है. मसलन, किसानों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि गोशाला बनाते समय वो आगे की योजना बनाने में सक्षम हों. लिंस कहते हैं, "अगर एक डेयरी किसान के रूप में आपको हर दो या तीन साल में कई हजार या फिर लाखों यूरो का निवेश करना पड़ता है, तो जाहिर है कि यह एक बहुत बड़ा बोझ है.”
कृषि नीति विशेषज्ञ थोमास हर्जफेल्ड मौजूदा व्यवस्था को लंबे समय तक संरक्षित रखने की कोशिश के लिए पिछले कृषि मंत्रियों को दोषी मानते हैं.
लाइबनित्स इंस्टिट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट इन ट्रांजिशन इकॉनमीज (आईएएमओ) के निदेशक थोमास डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए समय कम होता जा रहा है. परिवर्तन को और अधिक मौलिक और तेजी से लागू करने का दबाव बढ़ता ही जा रहा है.”