तेल के कुएं में लगी आग ने बढ़ाई पर्यावरणविदों की चिंता
१७ जून २०२०पूर्वोत्तर राज्य असम के तिनसुकिया जिले के बाघजान में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी आयल इंडिया लिमिटेड के तेल के एक कुएं में लगी आग ने पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है. उनका कहना है कि इस आग से फैलने वाले प्रदूषण का इलाके के पर्यावरण, आम लोगों के जीवन और इस ग्रामीण इलाके की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर होगा और इस नुकसान की भरपाई पैसों से नहीं की जा सकेगी. इस आग के बाद इलाके में कई बार आए भूकंप के झटकों ने भी सरकार और विशेषज्ञों को चिंतित कर दिया है. सिंगापुर, कनाडा और अमरीका के विशेषज्ञों की सहायता के बावजूद बीती 27 मई को लगी इस आग पर अब तक काबू नहीं पाया जा सका है. अब इसके लिए सेना की सहायता ली गई है.
इस आग और इसके साथ निकलने वाले जहरीले रसायनों के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए आस-पास के लगभग डेढ़ हजार परिवारों को हटा कर सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया है. कंपनी ने क्षतिग्रस्त परिवारों को आर्थिक सहायता भी दी है. लेकिन आग की वजह से नजदीक ही स्थित साइखोवा फॉरेस्ट रिजर्व समेत पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश के जंगलों की जैविक विवधता भी खतरे में पड़ गई है.
इस हादसे ने बार-बार होने वाले औद्योगिक दुर्घटनाओं, कंपनियों के खराब सुरक्षा रिकार्ड और केंद्र सरकार की ओर से पर्यावरण संबंधी नियमों को कड़ाई से लागू नहीं करने जैसे मुद्दों को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया है. इन हादसों से जान-माल का भारी नुकसान तो होता ही है, पर्यावरण को भी अपूरणीय क्षति पहुंचती है.
आग पर काबू पाने की कोशिश
बीते महीने एक कुएं में अचानक लगी आग से उठने वाली लपटों और काले धुएं को मीलों दूर से भी देखा जा सकता था. कंपनी ने पहले इस आग पर काबू पाने के लिए पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया. लेकिन उससे कोई कामयाबी तो नहीं ही मिली, उल्टे रसायन मिले पानी की वजह से आस-पास के खेतों में लगी फसलों को नुकसान पहुंचा और नजदीक के जंगल की जैविक-विविधता भी प्रभावित हुई. फिलहाल कुएं के आसपास के डेढ़ किमी के दायरे को रेड जोन घोषित कर दिया गया है. बाघजान 5 नामक जिस कुएं में आग लगी है वह कंपनी के सबसे प्रमुख गैस भंडारों में शुमार है. यहां जमीन में चार किमी की गहराई से 4,200 पाउंड प्रति वर्ग इंच के दबाव से गैस निकाली जाती है. मौजूदा दौर में ड्रिलिंग की बेहतर तकनीक, बेहतरीन उपकरणों और ब्लोआउट रोकने वाले उपकरणों यानी बीओपी की वजह से तेल या गैस के अचानक बाहर निकलने की घटनाएं बहुत कम देखने-सुनने को मिलती हैं.
बीओपी एक भारी-भरकम यंत्र होता है जिसे ऐसे ही हादसे रोकने के लिए कुएं के मुंह पर लगाया जाता है. ऑयल इंडिया का कहना है कि हादसे के दिन वहां मरम्मत का काम चल रहा था और कुएं से उत्पादन रोक कर उसके मुंह पर लगे बीओपी को हटा दिया गया था. अचानक कुएं से भारी मात्रा में गैस निकलने लगी और इसने अस्थायी बैरियर को तोड़ दिया. इस हादसे का पता लगाने के लिए कंपनी जांच कर ही रही है. असम सरकार ने भी मामले की जांच के आदेश दिए हैं. मौके पर मौजूद ऑयल इंडिया के दो कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया है. आग पर काबू पाने के प्रयास में फायर ब्रिगेड के दो कर्मचारियों की मौत भी हो चुकी है.
अब हाल में इलाके में आने वाले भूकंप के झटकों ने सरकार की चिंता बढ़ा दी है. असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने इस मुद्दे पर आईआईटी, गुवाहाटी और सीएसआईआर-नॉर्थ ईस्ट इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलाजी के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से मुलाकात कर उनसे बाघजान में आने वाले झटकों के अध्ययन का अनुरोध किया है. अगले सात से दस दिनों तक इन झटकों से संबंधित डेटा की रिकार्डिंग के लिए जोरहाट में पांच ब्रॉडबैंड सेस्मोग्राफ लगाए जा रहे हैं.
पर्यावरण को नुकसान
तिनसुकिया के जिस इलाके में यह आग लगी है वहां कई रिजर्व फॉरेस्ट, वन्यजीव अभयारण्य, जलाशय और जंगल हैं. यह पूरा इलाका जैविक-विविधता से भरपूर है. जिस कुएं में आग लगी है उससे एक किमी से कम दूरी पर डिब्रू-साईखोवा बायोस्फेयर रिजर्व और नेशनल पार्क स्थित है. यह पार्क पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश के नाम्डाफा नेशनल पार्क और देवमाली एलीफैंट रिजर्व से सटा है. इन तीनों से मिलकर इस इलाके में एक बड़ा वाइल्डलाइफ कॉरीडोर बना है. कुएं से निकलने वाली प्रोपेन, मीथेन, प्रोपलीन और दूसरी गैसें आस-पास पर्यावरण में पांच किमी के दायरे में फैल गई हैं. इससे निकलने वाली राख ने खेतों और जंगल को भारी नुकसान पहुंचाया है. इस इलाके में बहने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों के पानी ने भी खेतों तक इन जहरीले रसायनों को पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है.
ऑयल इंडिया ने इस हादसे के असर के आकलन के लिए एक सलाहकार की नियुक्ति की है. लेकिन पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे आम लोगों व उनकी आजीविका को तो नुकसान पहुंचा ही है, लेकिन इलाके की जैविक विविधता और पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई संभव नहीं है. इलाके के कई छोटे चाय बागान पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं. पर्यावरणविद डा. सुगत हाजरा कहते हैं, "आग पर अभी पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका है. इसलिए नुकसान का सटीक आकलन संभव नहीं है. लेकिन यह तो तय है कि जैविक-विविधता और पर्यावरण को पहुंचने वाले नुकसान की निकट भविष्य में भरपाई संभव नहीं होगी.” पर्यावरण की रक्षा के हित में काम करने वाले एक संगठन के प्रमुख सुशांत चटर्जी कहते हैं, "जिस जगह आग लगी है वहां आस-पास कई फॉरेस्ट रिजर्व के अलावा डिब्रू-साईखोवा नेशनल पार्क और मागुरी-मोटापुंग वेटलैंड है. उनको होने वाले नुकसान की कल्पना करना भी मुश्किल है.”
वाइल्डलाइफ बायोलाजिस्ट रंजन घोष कहते हैं, "नेशनल पार्क के इको-सेसेंटिव जोन में संपत्ति, आजीविका, सुरक्षा और पर्यावरण को अब तक जितना नुकसान हो चुका है उसकी भरपाई नहीं की जा सकती. पैसों के बल पर डिब्रू-साईखोवा नेशनल पार्क और मागुरी वेटलैंड की नष्ट जैविक-विविधता को दोबारा हासिल नहीं किया जा सकता.” यह नेशनल पार्क 340 वर्गकिमी इलाके में फैला है जबकि बायोस्फेयर रिजर्व का क्षेत्रफल 765 वर्गकिमी है. पार्क में वनस्पतियों की तमाम किस्मों के साथ ही 36 तरह के जानवर भी हैं. यह पार्क पक्षियों की चार सौ प्रजातियां का भी घर है.
पर्यावरणविदों का कहना है कि इस आग की वजह से निकलने वाले जहरीले रसायनों का इलाके के लोगों और अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर होगा. पर्यावरण को होने वाले नुकसान के आकलन में तो अभी काफी समय लगेगा. लेकिन पुनरावृत्ति रोकने के लिए सरकार को ऐसे हादसों से सबक लेकर पर्यावरण कानूनों को कड़ाई से लागू करना होगा. इसके साथ ही जैविक विविधता वाले इलाकों में ऐसी परियोजनाओं को मंजूरी देने से पहले तमाम पहलुओं का बारीकी से अध्ययन करना जरूरी है. ऐसा नहीं होने की स्थिति में अक्सर ऐसे हादसे होते रहेंगे.
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