कश्मीर के भविष्य का अनसुलझा सवाल
५ अगस्त २०२१कश्मीर में पसरी शांति के मायने आज लोग अपनी अपनी विचारधारा के हिसाब से निकालते हैं. कोई इस शांति को अच्छा और कश्मीर में आए "सकारात्मक" बदलाव का संकेत मानता है, तो कोई और इसे मायूसी के रूप में देखता है. सच जानने के लिए आपको कई आंकड़े देखने होंगे और साथ में देखना होगा दिल्ली से आ रहे संकेतों को.
आतंकवाद अभी भी इलाके के लिए एक चुनौती बना हुआ है. आए दिन सुरक्षाबलों और आतंकवादियों के बीच मुठभेड़ की खबरें आती रहती हैं. "द हिन्दू" अखबार के मुताबिक, इस साल अभी तक कम से काम 89 आतंकवादी मारे गए हैं. अकेले जुलाई में 15 मुठभेड़ें हुईं जिनमें 31 आतंकवादी मारे गए.
पैर पसारता आतंकवाद
इसके अलावा आतंकवादी संगठनों के लोग स्थानीय लोगों को लगातार अपने संगठनों में भर्ती भी कर रहे हैं. अखबार कि इसी रिपोर्ट में दावा किया गया है इसी साल जैश-ए-मोहम्मद और हरकत-उल-मुजाहिदीन जैसे संगठनों ने अभी तक 82 लोगों को भर्ती किया है. जैश का ध्यान तो राजधानी श्रीनगर पर खास तौर से केंद्रित है, जहां से उसने कई लोगों को भर्ती किया है.
इतना ही नहीं, जम्मू और कश्मीर में ड्रोन के रूप में आतंकी हमलों के एक हथियार का भी उदय हुआ है. जून में जम्मू स्थित वायु सेना के हवाई अड्डे के अंदर दो ड्रोनों के विस्फोटक गिराने से धमाके हुए जिसमें वायु सेना के दो कर्मी घायल हो गए. और यह सब तब हो रहा है जब जम्मू और कश्मीर में पहले के मुकाबले अभूतपूर्व संख्या में सुरक्षाबल तैनात हैं.
अर्थव्यवस्था ठप
भारत के बाकी हिस्सों में तो तालाबंदी कोविड-19 महामारी के आने के बाद मार्च 2020 से लगी, लेकिन कश्मीर में तालाबंदी अगस्त 2019 से ही लागू हो गई थी. कर्फ्यू लग गया था, मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं और जगह जगह सुरक्षाबल तैनात कर दिए गए थे. महामारी के आने के बाद लगी तालाबंदी इलाके के लोगों के लिए दोहरी मार ले कर आई.
आम जन-जीवन तो ठप हुआ ही, अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से चरमरा गई. पर्यटन बंद हो गया, सेबों का व्यापार बंद हो गया, बाजार बंद रहने लगे और रोजगार मिलना दूभर हो गया. कमोबेश आज भी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है. बाजार अब खुलते हैं लेकिन व्यापार अब भी नहीं होता. पर्यटन तो अभी भी अपने पैरों पर दोबारा खड़ा नहीं हो पाया है.
श्रीनगर में रहने वाले पत्रकार रियाज वानी बताते हैं कि दरअसल कश्मीर में तालाबंदी जैसे हालात फरवरी 2019 में हुए पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद से ही कायम हैं. वानी ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत के दूसरे इलाकों में 2020 और 2021 में लगाई गई तालाबंदी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था सिमट कर एक चौथाई हो गई. ऐसे में लगभग ढाई सालों से तालाबंदी जैसे हालत में कश्मीर की अर्थव्यवस्था का क्या हाल हुआ है, इसका आप अंदाजा लगा सकते हैं."
राजनीतिक दमन
पांच अगस्त 2019 के फैसलों की सबसे बड़ी कीमत शायद कश्मीर ने राजनीतिक दृष्टि से चुकाई है. जो इलाका निर्वाचित नुमाइंदों वाली विधान सभा के साथ एक पूरा राज्य हुआ करता था, वो आज दो प्रदेशों में विभाजित है जिनके सभी बड़े फैसले दिल्ली से लिए जाते हैं. राजनीतिक आत्मनिर्भरता के इस नुकसान का लोगों के मानस पर क्या असर हुआ है इसे मापने का शायद ही कोई पैमाना हो.
इसके अलावा पूरे इलाके के राजनीतिक नेतृत्व को एक तरह से शांत कर दिया गया है. अगस्त 2019 में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत कम से कम 290 नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत आरोप लगाकर उन्हें या तो जेल में डाल दिया गया था या उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया था.
इन पूर्व मुख्यमंत्रियों में से फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को सात महीनों और महबूबा मुफ्ती को 14 महीनों तक हिरासत में रखा गया. बड़ी संख्या में कई नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता अभी भी हिरासत में हैं. "इंडियन एक्सप्रेस" अखबार के मुताबिक जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने 2019 से अभी तक यूएपीए और पीएसए के तहत 1200 से भी ज्यादा मामले दर्ज किए हैं और इनमें 3,200 से भी ज्यादा लोगों को नामजद किया है.
इनमें से यूएपीए के तहत हिरासत में लिए गए लोगों में से 46 प्रतिशत और पीएसए के तहत हिरासत में लिए गए लोगों में से करीब 30 प्रतिशत अभी भी जेल में हैं. इनके अलावा 5,500 से भी ज्यादा अतिरिक्त लोगों को सीआरपीसी की धारा 107 के तहत गिरफ्तार किया गया था. सरकार का कहना है कि अब इन सभी को रिहा कर दिया गया है.
अनिश्चितता जारी है
2019 में केंद्र ने ही कहा था कि जम्मू और कश्मीर के राज्य के दर्जे का हटाया जाना एक अस्थायी कदम है और दर्जे को लौटाने के प्रति केंद्र प्रतिबद्ध है, लेकिन दो साल बाद अभी तक इसका रोडमैप सामने नहीं आया है. इलाके के लोग फिर कब अपने जन-प्रतिनिधियों को चुन पाएंगे उन्हें इस बात की कोई खबर नहीं है. चुनावों पर भी परिसीमन की तलवार लटक रही है.
ऐसे में अगस्त 2019 के फैसलों के दो साल पूरा होने पर केंद्र ने ऐसा भी कोई कदम नहीं उठाया है जिसे लोगों के मन पर लगे घावों पर मरहम लगाने का संकेत भर भी दिया जा सके. उल्टा केंद्र सरकार और दमन के ही संकेत दे रही है. जुलाई 2021 में जम्मू और कश्मीर प्रशासन में दशकों से काम कर रहे कम से कम 11 कर्मियों को नौकरी से निकाल दिया गया है. प्रशासन ने उन पर आतंकवादी संगठनों से जुड़े होने का आरोप लगाया और बिना किसी जांच के उन्हें बर्खास्त कर दिया गया.
अगस्त में जम्मू और कश्मीर पुलिस ने आदेश जारी किया कि जो लोग प्रदर्शनों के दौरान पत्थर फेंकने जैसी वारदातों में शामिल पाए गए हैं उन्हें पासपोर्ट और अन्य सरकारी सेवाओं के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा. इसके अलावा पांच अगस्त को भी श्रीनगर से खबरें आईं कि पुलिस ने दुकानदारों को विरोध के रूप में अपनी दुकानें बंद रखने की इजाजत नहीं दी.
पत्रकार आमिर पीरजादा ने दावा किया कि जिन दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद रखीं पुलिस ने उनकी दुकानों के ताले तोड़ कर जबरन दुकानों को खोल दिया. इस तरह के कदमों से संकेत यही मिल रहा है कि प्रशासन अभी भी आम कश्मीरियों के दिलों को छूने की कोशिश करने की जगह मनमानी का ही परिचय दे रहा है. ऐसे में कश्मीर के हालात में सुधार आने का इंतजार और लंबा ही होता चला जा रहा है.