कहां गायब हो गए असम के विदेशी नागरिक?
२ अप्रैल २०१९अदालत ने कहा कि ऐसे अघोषित विदेशियों की तादाद भी हजारों में होने का अंदेशा है जो स्थानीय आबादी में घुल-मिल गए हों. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते साल मार्च तक असम के विदेशी न्यायाधिकरणों ने 91,609 लोगों को अवैध विदेशी करार दिया था लेकिन इनमें से 72,426 लोग गायब हो गए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान असम सरकार को लताड़ लगाते हुए पूछा है कि आखिर वह इतनी बड़ी तादाद में गायब और अघोषित विदेशियों का पता कैसे लगाएगी. राज्य के मुख्य सचिव को आठ अप्रैल को अदालत में हाजिर रहने का निर्देश दिया गया है. शीर्ष अदालत ने असम सरकार पर अदालत से खेलने का भी आरोप लगाया है.
बंदी शिविरों की बदहाली
असम में विभिन्न जिलों में कई विदेशी न्यायाधिकरणों का गठन किया गया है जो संदिग्ध नागिरकों और घुसपैठियों की जांच करते हैं. अगर ऐसे लोगों को विदेशी घोषित किया जाता है, तो उनको जगह-जगह बने डिटेंशन कैंप यानी बंदी शिविरों में रखा जाता है. लेकिन इन शिविरों की हालत बेहद दयनीय है. मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझ रहे इन शिविरों में रहने वालों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसे लोगों की तादाद भी बहुत ज्यादा है जो सरकार की उदासीनता के चलते घुसपैठ के लिए निर्धारित अधिकतम सजा पूरी होने के बावजूद इन शिविरों में रह रहे हैं. इन शिविरों की बदहाली का मुद्दा अकसर सुर्खियां बनता रहा है. अब सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने इन शिविरों में रहने वालों की हालत पर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है. उसी पर सुनवाई के दौरान अदालत ने उक्त टिप्पणी की है.
असम में सीमा पार से घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी रही है. इसी विदेशी घुसपैठ के मुद्दे पर अस्सी के दशक की शुरुआत में राज्य में बड़े पैमाने पर आंदोलन भी हो चुका है. लेकिन अब तक इस समस्या पर काबू नहीं पाया जा सका है. सीमावर्ती इलाकों में आबादी मिली-जुली होने की वजह से सीमा पार से आने वाले लोग आसानी से स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल जाते हैं. कई मामलों में विदेशी घोषित होने के बाद लोग रातोंरात गायब हो जाते हैं.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से इन शिविरों में रहने वालों की तादाद व हालत पर रिपोर्ट मांगी थी. बीते महीने अदालत ने यह भी जानना चाहा था कि इन शिविरों में रहने वाले विदेशी नागरिकों में से कितनों को वापस भेजा गया है. इसके जवाब में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बताया था कि असम के छह ऐसे शिविरों में फिलहाल 938 लोग रह रहे हैं. उनमें से न्यायधिकरणों ने 823 को विदेशी घोषित किया है. केंद्र ने बताया था कि 27 हजार विदेशियों को घुसपैठ का प्रयास करने के दौरान सीमा से वापस भेजा गया है. अदालत ने कहा कि असम में अवैध आप्रवासियों की समस्या बीते 50 वर्षों से रही है, लेकिन उनको वापस भेजने की दिशा में अब तक कोई ठोस पहल क्यों नहीं की गई है?
एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?
बीते साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट की एक अलग खंडपीठ ने भी केंद्र सरकार को इन शिविरों पर दो महीने के भीतर एक मैनुअल तैयार करने का निर्देश दिया था. लेकिन उस आदेश पर अब तक अमल नहीं हो सका है. राज्य सरकार की दलील है कि इन विदेशी नागरिकों को वापस भेजने की प्रक्रिया बेहद जटिल और राजनयिक है. इसमें केंद्रीय गृह मंत्रालय के अलावा विदेश मंत्रालय व बांग्लादेश सरकार शामिल हैं. सरकार की दलील है कि किसी भी विदेशी नागरिक को उसी स्थिति में बांग्लादेश वापस भेजा जा सकता है जब वहां की सरकार उसके बांग्लादेशी होने की पुष्टि करे.
नियमों के मुताबिक विदेशी न्यायधिकरणों की ओर से विदेशी घोषित व्यक्ति इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे सकता है. इन शिविरों में रहने वाले ज्यादातर लोग बेहद गरीब और अशिक्षित हैं. वह अपने बूते कानूनी सहायता भी नहीं ले सकते.
उक्त याचिका पर सुनवाई के दौरान ही मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने राज्य सरकार से सवाल किया कि आखिर राज्य में अवैध रूप से रहने वाले विदेशियों की तादाद क्या है और सरकार अघोषित विदेशियों की पहचान कैसे करेगी. मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि विदेशी घोषित वह लोग कहां गए जिनको न तो वापस भेजा गया और जो न ही बंदी शिविरों में हैं. केंद्र सरकार की दलील थी कि विदेशियों की राष्ट्रीयता की पहचान की प्रक्रिया में कई दिक्कतें हैं. ऐसे लोग पकड़े जाने पर या तो अपने बारे में कोई सूचना नहीं देते या फिर गलत सूचना देते हैं.
केंद्र सरकार ने कहा कि पहले विदेशियों को सीमा पार बांग्लादेश भेज दिया जाता था. लेकिन 2013 में यह नीति बंद कर दी गई. उसकी बजाय अब राजनयिक चैनल का सहारा लिया जाता है. अदालत ने असम सरकार से जानना चाहा है कि बंदी शिविरों की हालत सुधारने के लिए वह क्या कर रही है और वहां रहने वालों को कितने दिनों तक रखा जाएगा.
अदालत से उम्मीद
असम में लगभग 1.20 लाख लोगों को संदिग्ध वोटरों की सूची में रखा गया है. यह ऐसे लोग हैं जिनकी नागरिकता पर संदेह है. उनके मामले की सुनवाई विदेशी न्यायाधिकरणों में होती है. उनके अलावा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) के मसौदे से बाहर रहे लोगों के मामले की सुनवाई भी इन न्यायधिकरणों में ही की जाती है. विदेशी घोषित करने के बाद उनको बंदी शिविरों में भेज दिया जाता है. लेकिन उसके बाद सरकार इन मामलों पर चुप्पी साध लेती है. नतीजतन कई लोग बरसों से ऐसे शिविरों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने पर मजबूर हैं.
मानवाधिकार कार्यकर्ता तहमीना लस्कर कहती हैं, "बंदी शिविरों में हालात बेहद अमानवीय हैं. लेकिन राज्य या केंद्र सरकार को वहां रहने वाले लोगों की कोई चिंता नहीं है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से तस्वीर बदलने की उम्मीद जगी है." वह कहते हैं कि सबसे बुरी हालत तो इन शिविरों में रहने वालों के बच्चों की है. छह साल से ज्यादा उम्र के बच्चों को अपने मां-बाप के साथ शिविरों में नहीं रहने दिया जाता.
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