क्या अपने ही दिए फैसले पर फिर फैसला दे सकते हैं जज?
१७ अक्टूबर २०१९इस फैसले करने से पहले इस पीठ को एक फैसला और करना है. क्या एक जज जो उस पीठ का हिस्सा थे जिसने इन दोनों फैसलों में से एक सुनाया था इस बड़ी पीठ का हिस्सा हो सकते हैं? या यूं कहें कि क्या एक जज अपने ही दिए हुए फैसले पर दोबारा फैसला दे सकता है?
मूल विवाद भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के एक प्रावधान को ले कर है. 1894 के पुराने भूमि अधिग्रहण कानून को बदल देने वाले इस कानून में जो नए प्रावधान जोड़े गए उनमें से एक है धारा 24(2). यह धारा ऐसे मामलों से सम्बंधित है जिनमें 1894 वाले पुराने कानून के तहत भूमि अधिग्रहण शुरू हो चुका हो. ये धारा कहती है कि ऐसे मामलों में अगर हर्जाने की राशि की घोषणा नया कानून आने के 5 साल या उस से पहले कर दी गई हो लेकिन ना उसका भुगतान हुआ हो और ना उस भूमि का कब्जा लिया गया हो, तो इन मामलों को रद्द माना जाएगा.
ऐसे कई मामले थे जिनमें जमीन का अधिग्रहण बाकी था क्यूंकि या तो हर्जाने का भुगतान नहीं किया गया था या जमीन मालिकों ने जमीन देने से मना कर दिया था. नए कानून के लागू होते ही ऐसे कई मामले देश भर की अदालतों में दायर किये गए. पुणे नगरपालिका से सम्बंधित एक केस सर्वोच्च न्यायालय पंहुचा और इस केस में 24 जनवरी, 2014 को न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा, मदन लोकुर और कुरियन जोसफ की तीन-सदस्यीय पीठ ने फैसला सुनाया. पीठ का निर्णय था कि सिर्फ सरकारी खजाने में हर्जाने की राशि जमा कर देने भर को जमीन मालिकों को किया गया भुगतान नहीं माना सकता और ऐसा अधिग्रहण रद्द हो जाएगा.
8 फरवरी 2018 को दूसरे तीन जजों वाली पीठ के सामने एक और केस आया. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, आदर्श गोयल और मोहन शान्तनागोदर वाली इस पीठ ने फैसला दिया कि राशि जमा नहीं होने से अधिग्रहण रद्द नहीं होगा. पुणे नगरपालिका वाले फैसले से बिलकुल विपरीत फैसला सुनाते हुए, पीठ ने इसी फैसले में यह भी कहा कि उस मामले में फैसला देते वक्त सभी तथ्यों का ख्याल नहीं रखा गया था.
कुछ दिनों बाद न्यायमूर्ति लोकुर, जोसफ और दीपक गुप्ता की अदालत में धारा 24(2) से जुड़ा एक और मामला आया और उसकी सुनवाई के दौरान पीठ को बताया गया कि पुणे नगरपालिका वाले फैसले को अमान्य घोषित कर दिया गया है. यह सुन कर न्यायमूर्ति लोकुर ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में धारा 24(2) से जुड़े सभी मामलों पर तब तक रोक लगा दी जब तक इस द्वन्द का समाधान नहीं निकलता.
22 फरवरी, 2018 को एक और मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने पूरे मामले को तत्कालीन मुख्या न्यायाधीश दीपक मिसरा के पास भेज दिया ताकि वो एक बड़ी पीठ बनाएं जो मामले पर अपना फैसला दे.
12 अक्तूबर, 2019 को इसी मामले के समाधान के लिए पांच जजों की संविधान पीठ का गठन हुआ और इसके नेतृत्व का जिम्मा न्यायमूर्ति मिश्रा को सौंपा गया. अब विवाद ये है न्यायमूर्ति मिश्रा ही खुद ये फैसला कैसे कर सकते हैं कि उनका फैसला सही था या उसे अमान्य घोषित करने वाला फैसला सही था. न्यायमूर्ति मिश्रा ने इस आपत्ति पर बेहद नाराजगी व्यक्त की है और कहा है कि ऐसी अपीलों के जरिये लोग विशेष पीठों को निशाना बनाना चाहते हैं.
सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता प्रशांत भूषण इसे एक अजीब स्थिति मानते हैं. उन्होंने ट्टवीट किया है, "जहां तक किसी मामले से किसी जज के अलग होने का सवाल है, इस पर कानून ने बहुत पहले ही साफ कह दिया था की जज को खुद से नहीं पूछना चाहिए कि वो पूर्वाग्रह से ग्रसित है या नहीं, बल्कि उसे ये पूछना चाहिए कि वादी को पूर्वाग्रह की आशंका हो सकती है या नहीं और अगर हो सकती है तो जज को मामले से हट जाना चाहिए."
बहरहाल, न्यायमूर्ति मिश्रा ने खुद को इस मामले से हटाने से मना कर दिया है और ये भी कहा है कि वो इस बात से संतुष्ट हैं कि वो किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हैं.
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