खाली खाली तंबू, खाली खाली डेरा
१८ मई २०१३सर्कस मैनेजर जॉन मैथ्यू 38 साल से भारत में लोगों का मनोरंजन करते आए हैं. लेकिन अब यह कला खतरे में है. मुंबई के बाहर जहां सर्कस चलता है, वहां 3000 लोग बैठ सकते हैं. लेकिन पिछले शो में सिर्फ 100 टिकट बिके.
टेलीविजन और सिनेमा के बढ़ते चलन के साथ सर्कस का महत्व कम होता जा रहा है. मैथ्यू ने बताया कि 1990 के दशक में देश भर में 300 सर्कस चलते थे, जिनकी संख्या घट कर 30 रह गई है. इनमें से ज्यादातर को मैदान के बढ़ते किराए और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से चोट पहुंची है. उन्होंने कहा, "दस या 15 साल के बाद भारत में कोई सर्कस नहीं रहेगा." वह मैदान में ही लगे तंबू में रहते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के दशक में जंगली जानवरों के सर्कस में इस्तेमाल पर रोक लगा दी. दो साल पहले बच्चों के प्रदर्शन पर भी रोक लगा दी गई. बचपन बचाओ आंदोलन की कोशिशों से ऐसा हो पाया. संगठन ने एक बयान जारी कर कहा, "हर रोज बच्चों के साथ यौन दुराचारों के प्रमाण मिले हैं और उन्हें भावनात्मक तौर पर भी प्रताड़ित किया जाता है. उन्हें खाना और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलती हैं."
मैथ्यू इन दोनों पाबंदियों से इत्तेफाक नहीं रखते और कहते हैं कि हाथी, शेर और चीतों जैसे जंगली जानवरों के लिए खास तैयारियां की जाती थीं और लोग उन्हें पसंद करते थे, "हम अपने जानवरों से प्यार करते थे. हमारा कारोबार उन पर निर्भर था. हम उनका बहुत ख्याल रखते थे." बच्चों के बारे में उनका कहना है कि सर्कस गरीब बच्चों को सिखाता था, उन्हें रोजी रोटी देता था.
बिजू नायर ऐसा ही एक बच्चा है. दस साल की उम्र में वह घर से भाग गया और सर्कस में पहुंच गया. घर पर उसे लोग पीटते थे, जिससे परेशान होकर वह मुंबई पहुंचा. भूखा और बेघर. सर्कस में उसे भर पेट खाना मिला और काम भी. बचपन में चोरी छिपे सर्कस देखने वाले नायर 42 साल की उम्र में अब खुद एक मसखरे का काम कर रहे हैं.
उनका कहना है कि मसखरी की नई तरकीबों के लिए वह यूट्यूब भी देखता है, "यह एक मुश्किल काम है लेकिन इससे मुझे एक मौका तो मिलता है." हालांकि उन्हें एक बात की खुशी है कि दोनों बच्चे उनके साथ सर्कस के तंबू में नहीं, बल्कि केरल में रह रहे हैं और वहां स्कूल जा पा रहे हैं.
नायर भी मानते हैं कि भारत में सर्कस का भविष्य लंबा नहीं क्योंकि बच्चों की ट्रेनिंग पर पाबंदी लग गई है, "आप अचानक 20 की उम्र में सीखना शुरू करें तो सब कुछ नहीं सीख सकते हैं."
बीतते वक्त के साथ भारतीय सर्कस में विदेशी कलाकारों की तादाद बढ़ रही है. रिंग ऑफ डेथ में शामिल कोलंबिया के कलाकार भी इसी वजह से रैंबो सर्कस में शामिल हुए. तंबू के अंदर 26 साल के कोलंबियाई स्टार जीन कार्लोस का कितना दबदबा है, इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि तंबू में भी उनके लिए एयर कंडीशन लगाया गया है.
कोलंबिया के स्टार सिर्फ स्पेनी बोल पाते हैं, लिहाजा वे ज्यादा लोगों से घुलते मिलते नहीं. कार्लोस का कहना है कि उनकी चौथी पीढ़ी सर्कस में काम कर रही है. कर्मचारियों को उनसे बातचीत करने के लिए कंप्यूटर प्रोग्राम का सहारा लेना पड़ता है. हालांकि नायर जैसे दूसरे कर्मचारी भी हैं, जिन्हें महीने में सिर्फ 8000 रुपये मिलते हैं.
तीन महीने पहले सर्कस में इथियोपिया का एक एक्रोबेटिक स्टार भी शामिल हुआ है. 23 साल के गिरमा इदनेकाचेव को हर महीने 600 डॉलर मिलते हैं. हालांकि उसके लिए पैसा सब कुछ नहीं है, "यह सिर्फ पैसा नहीं है. मुझे लगता है कि रिंग के अंदर आपको बहुत अच्छा लगता है."
भारत की निशा पोयाराथ रायोराथ ने सर्कस संस्कृति की पढ़ाई की है और इसी विषय में डॉक्टरेट हासिल की है. उनका कहना है, "अब बहुत जगहों पर सर्कस वालों को दुकानें भी लगानी पड़ती हैं. इसके लिए उनके पास बहुत ज्यादा सुविधा नहीं होती."
रैंबो सर्कस वालों को आज एक बजे दोपहर का शो कैंसिल करना पड़ा क्योंकि बहुत कम टिकटों की बिक्री हुई. लेकिन चार बजे के शो में 250 टिकट बिके हैं. यह शो होगा. इसमें ज्यादातर बच्चे अपने मां बाप के साथ आ रहे हैं.
शो शुरू हुआ, तो सबसे हिट रिंग ऑफ डेथ रहा, जिसमें कार्लोस मौत की चकरी के अंदर बाहर हुए. बीजू नायर ने अपनी मसखरी से लोगों को खूब हंसाया. शो के बाद दर्शकों ने ताली बजाई. मैथ्यू के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई कि फिलहाल वह सर्कस को मरने नहीं दे रहे हैं. जैसे कह रहे हों, "जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा और जाना कहां."
एजेए/एमजी (एपी)