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तालिबान और महाशक्तियों की खींचतान में अफगानिस्तान

राहुल मिश्र
३० अगस्त २०२१

अफगानिस्तान में तालिबान के नियंत्रण के बाद अस्थिरता का माहौल है. काबुल में आत्मघाती हमलों के बाद अमेरिका ने जवाबी हमले किए तो फ्रांस और ब्रिटेन ने मानवीय मदद को जारी रखने के लिए सुरक्षित जोन बनाने की मांग की है.

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Afghanistan Krise l Explosion in Kabul
तस्वीर: Haroon Sabawoon/AA/picture alliance

काबुल में एक के बाद एक हुए तीन बम धमाकों ने अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने की रणनीति की कलई खोल कर रख दी है. कुछ हफ्ते पहले जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अमेरिकी फौजों को अफगानिस्तान से निकालने संबंधी बयान दिया था तो ऐसा लगा था कि अमेरिकी प्रशासन ने मानो शतरंज की हर बाजी सोच रखी थी. लेकिन चौतरफा आलोचना झेल रहे बाइडेन को बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था तैयार किए देश से फौजें बुलाने का नैतिक तौर पर दोषी माना जा रहा है.

अफगानिस्तान ने एक बार फिर दिखा दिया है कि विश्व के किसी भी कोने में सुरक्षा के लिए अमेरिका कितना जरूरी है. आखिरकार, यह अमेरिका ही तो था जिसने खुद पर 2001 में हुए हमले को पूरी मानव सभ्यता पर हुआ आतंकी हमला करार दिया और कुछ ही वर्षों में यह भी कह दिया कि उन तथाकथित आतंकवादियों से लड़ाई में या तो आप अमेरिका के साथ हैं या उसके खिलाफ. बात बिलकुल सही है - गांव में तो गांव के चौधरी की ही मर्जी चलती है कि वहां क्या नियम चले और क्या अमल हो. खूब चलते हैं यह नियम गांवों में, कालीन भैया के कपोलकल्पित मिर्जापुर में, और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में भी.

लेकिन इस व्यवस्था को न्यायपूर्ण व्यवस्था नहीं मान लिया जाना चाहिए. उस वक्त पूरी दुनिया ने अमेरिका के साथ एकजुटता दिखाई थी और आतंकवाद की लड़ाई में उसका साथ दिया था. लेकिन यह सवाल कहीं अनसुना रह गया कि 2001 से कई बरसों पहले से आतंक की मार झेल रहे रूस और भारत जैसे देशों की लड़ाई कैसे आतंकवाद विरोधी लड़ाई नहीं बनी. अंतरराष्ट्रीय समुदाय और उसकी संस्थाएं आतंकवाद की साझा व्याख्या करने में पूरी तरह नाकाम रही. और दो दशक बाद जब अमेरिका अफगानिस्तान से वापस जाने को आतुर है तो वही यक्षप्रश्न फिर सामने आ खड़ा हुआ है? अंतरराष्ट्रीय टुकड़ियों की वापसी के बाद अफगानिस्तान के लोगों की सुरक्षा के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या भारत और उसके जैसे अफगानिस्तान के तमाम पड़ोसी देशों की सुरक्षा महत्वपूर्ण नहीं है?

Usbekistan | Afghanistan Konferenz
जुलाई 2021 में ही हुई थी इमरान खान और अशरफ गनी की मुलाकाततस्वीर: AP Photo/picture alliance

अमेरिका का एकला चलो रे

अफगानिस्तान से वापसी से पहले ऐसा लगता है कि अमेरिका ने न तो अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों से बातचीत की, न संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद के साथी सदस्यों से राय ली और न ही नाटो के अपने साथियों से सलाह मशविरा किया. अब अफगानिस्तान की पूरी सरकार ताश के पत्ते के महल की तरह भरभरा कर गिर गई है और तालिबान ने असामयिक रूप से देश को कब्जे में ले लिया है. लेकिन किसी को पता नहीं कि नई सरकार को मान्यता देनी है कि नहीं. भविष्य की राजनीतिक संरचना तय नहीं है उसे आने वाले दिनों में ताकत और कूटनीति से तय किया जाएगा. अफगानिस्तान तालिबान और बड़ी ताकतों के खेल का मैदान बन गया है.

जहां तक रूस का सवाल है तो अव्वल तो यह कि जैसी बुरी तरह अफगानिस्तान से बाफजीहत सोवियत रूस निकला था आज अमेरिका को उसी हाल में देख व्लादीमिर पुतिन तो मुस्कुरा ही रहे होंगे, पुराने केजीबी अफसर और कट्टर राष्ट्रवादी जो ठहरे. शार्ट टर्म में देखें तो रूस के लिए यह अच्छी खबर है कि अमेरिका उसके पड़ोस से निकल गया वो भी बेआबरू हो कर. लेकिन रूस के लिए यह काफी नहीं है मध्य एशिया के देशों का रखवाला रूस यह कभी नहीं चाहेगा कि ताजिकिस्तान जैसे उसके मित्र देशों को तालिबान से दिक्कत हो. अफगानिस्तान में रूस ने हमेशा से नॉर्थर्न अलायंस को समर्थन दिया था. अहमद शाह मसूद के वंशजों को रूस का समर्थन आज भी है और यही लड़ाके आज पंजशीर में तालिबान से लोहा ले रहे हैं.

भारत के लिए बढ़ी मुश्किलें

शायद रूस इस ओर गंभीरता से सोच रहा है और अगर ऐसा होता है तो भारत के लिए यह अच्छी खबर होगी. भारत के लिए तालिबान खतरे का दूसरा नाम है. एक तो तालिबान पाकिस्तान का साथी है और दूसरे वह कश्मीर में कट्टरपंथ को उकसाता रहा है, जैश-ए-मोहम्मद और लश्करे तैयबा के साथ उसके सीधे संबंध रहे हैं. शायद इन्ही वजहों से भारत के प्रधानमंत्री मोदी और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के बीच खास अफगानिस्तान को लेकर हॉट-लाइन की स्थापना एक बड़ा उलटफेर कर सकता है.

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काबुल में आत्मघाती हमले में मारे गए अमेरिकी सैनिकों में सार्जेंट निकॉल गी भी थीतस्वीर: II Marine Expeditionary Force/U.S. Marine Corps/AP/dpa/picture alliance

खुश तो ईरान भी बहुत होगा क्योंकि अमेरिका की पड़ोस में मौजूदगी उसे भी आंख में किरकिरी की तरह चुभती थी. लेकिन तालिबान के मुद्दे पर उसके हितों का सामंजस्य रूस और भारत से ज्यादा है और यह भी भारत और शांति व्यवस्था के तमाम समर्थकों के लिए अच्छी खबर है. जहां तक तालिबान को हदों में बांधने का सवाल है तो कतर और यूएई जैसे खाड़ी के देश मजबूत भूमिका अदा कर सकते हैं. और सऊदी अरब ने हालांकि अब तक बहुत कुछ नहीं कहा है लेकिन वह भी बड़ी भूमिका निभा सकता है. मोदी के कार्यकाल में इन सभी देशों के साथ भारत के संबंधों में मजबूती आई है. लेकिन इन देशों का रोल तभी आएगा जब स्थिति हद से पार निकल जाय. और उस स्थिति को सोच कर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

चीन और पाकिस्तान का फायदा

तालिबान के आने से दो देशों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ है. शायद यह फायदा रणनीतिक तौर पर ज्यादा लगता है, जमीनी हकीकत में इसे बदलना बहुत मुश्किल है. ये तभी मुमकिन है जब हम यह मान लें कि तालिबान अपनी बुद्धि नहीं लगाएगा और चीन और पाकिस्तान के कहे मुताबिक विदेश और सुरक्षा नीति निर्धारित करेगा. लेकिन चीन और पाकिस्तान भी जानते हैं कि तालिबान उनकी हर बात नहीं मानने वाला और यह बात कहीं न कहीं उन्हें भी परेशान भी कर रही होगी.

फिलहाल पाकिस्तानी नेता और नीति-निर्धारकों में खुशी की लहर दिखती है. जहां इमरान खान को तालिबान की जीत गुलामी के बंधनों से मुक्ति लगती है तो वहीं आईएसआई  प्रमुख की तालिबान नेताओं के साथ नमाज अदा करने हुए तस्वीर सामने आई है. तालिबान के आने से पाकिस्तान की सामरिक भूमिका बढ़ेगी, अमेरिका और पश्चिम के देशों के साथ वह तालिबान के मामले में मध्यस्थ की भूमिका भी अदा कर सकेगा. भारत के मुकाबले उसे क्षेत्रीय समीकरण में भी फायदा मिलेगा. और इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के लिए पश्चिमी बार्डर अब फिर से दो दशक पहले वाली स्थिति में पहुंच गया है.

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काबुल में अमेरिका का ड्रोन हमलातस्वीर: REUTERS

रूस और चीन का नया समीकरण

अफगानिस्तान में तेजी से बदलती कूटनीतिक परिस्थितियों के बीच रूस और चीन के बीच सामंजस्य बढ़ा है. इन दोनों ही देशों के बीच इस बात पर बरसों से आम सहमति रही है कि उनके पड़ोस में किसी बाहरी ताकत का दखल अच्छी बात नहीं है. कभी दबे छुपे तो कभी मुखर तौर पर अपनी नाराजगी का इजहार भी रूस और चीन ने किया है. दोनों ही देश चाहते हैं कि उनके पड़ोसी देश खास तौर पर मध्य एशिया पर उनका प्रभुत्व रहे. लिहाजा अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी उनके लिए अच्छी खबर है.

रूस और चीन के बीच सामंजस्य का फायदा कुछ हद तक पाकिस्तान को भी मिलेगा क्यों कि उसके चीन से अच्छे संबंध हैं. लेकिन अगर अफगानिस्तान के मुद्दे को लम्बे परिदृश्य में आंकने की कोशिश की जाय तो रूस और चीन के बीच सामंजस्य प्राकृतिक नहीं है. रूस का अफगानिस्तान की राजनीति में दखल दशकों पुराना है. हाल की रिपोर्टों से यह भी साफ है कि रूस तालिबान को लेकर पूरी तरह निश्चिन्त नहीं है. इस्लामिक चरमपंथ से रूस दो चार हो चुका है और वह उन दुर्दिनों की ओर लौटना नहीं चाहेगा. मोटे तौर पर आम सहमति से ज्यादा रूस और चीन (और पाकिस्तान) के बीच सहयोग की संभावना कम ही है.

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मोदी और पुतिन के हाथ तुरुपतस्वीर: AFP/P. Golovkin

तालिबान की जरूरतें पूरी कर सकता है चीन

चीन के तालिबान से संबंध और बीते दिनों हुई मेल मुलाकातें भी भारत के लिए परेशान करने वाली हैं. पिछले दो दशकों में, खास तौर से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के तहत पाकिस्तान में चीन के आर्थिक-व्यापारिक निवेश बढ़े हैं. चीन अपने आर्थिक हितों को बचाने के साथ-साथ उन्हें और बढ़ाने की कोशिश करेगा. और तालिबान से इस बारे में बात करने में उसे कोई गुरेज नहीं. चीन अपनी आर्थिक ताकत की बदौलत तालिबान की पैसों की जरूरत भी पूरी कर सकता है. अफगानिस्तान में फिलहाल शांति की कोई उम्मीद नहीं दिखती.

भारत के खिलाफ लामबंद पाकिस्तान और चीन का उस तालिबान को समर्थन, जिसकी भारत से नफरत पुरानी है, अपने आप में खतरनाक है. उस पर अमेरिका का अफगानिस्तान छोड़कर जाना कुल मिलाकर भारत के लिए अच्छा संकेत नहीं है. भारत को अपनी सीमाओं पर चाक-चौबंद सुरक्षा के साथ-साथ कूटनीति में तत्परता भी दिखानी होगी और साथ ही हर नए समीकरण पर आंख गड़ाए रखना होगा. तस्वीर के इन टुकड़ों को मिलाकर देखा जाय तो एक भयावह तस्वीर बनती है जिसके तिलिस्म को तोड़ने के लिए सामरिक और रणनीतिक तौर पर ऐसे आत्मनिर्भर भारत को आगे आना होगा जो अपने हित में अधिक जिम्मेदारी लेने को तैयार हो.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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