परिवार की मुखिया हैं तो क्या, काम तो चूल्हा झोंकना ही है
२६ नवम्बर २०२०उत्तरपूर्व भारत के मेघालय राज्य में खासी समुदाय महिलाओं के अधिकार का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है. राज्य की 30 लाख की आबादी में करीब 25 फीसदी खासी हैं जो राज्य के जयंतिया और गारो समुदाय के साथ यहां रहते हैं. ये सभी समुदाय मातृसत्तात्मक हैं.
दूसरे शब्दों में कहें तो खासी परंपरा में परिवार का नाम और संपत्ति का उत्तराधिकार परिवार की महिलाओं के साथ चलता है. एस्तोनिया की तार्तू यूनिवर्सिटी में एस्तोनियन एंड कंपेरेटिव फोकलोर विभाग में रिसर्चर मार्गरेट लिंगदोह भी खासी समुदाय से आती हैं. उनका कहना है कि वंश और रक्त संबंध का जनजातीय विचार अतीत में पौराणिक कथाओं से आया है. जब पुरुष युद्ध करने जाते थे और महिलाओं को घर पर रह कर घर और वंश की देखभाल करनी होती थी.
मार्गरेट लिंगदोह का कहना है, "उत्तराधिकार को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि सबसे छोटी बेटी परिवार की संपत्ति की वारिस होती है. वास्तव में मालिक होने का मतलब यह नहीं है कि वह इसे बेच या खत्म कर सकती है. इसका सिर्फ यही मतलब है कि वह वंश विरासत की संरक्षक है. विरासत में जमीन, सोना, जेवर, महंगे कपड़े और यहां तक कि पूर्वजों की पारंपरिक जिम्मेदारियां भी हो सकती हैं.
एक तरह से कह सकते हैं कि महिलाएं ही इन बस्तियों में शासन करती हैं. अकसर वही परिवार की मुखिया होती हैं, वो सार्वजनिक रूप से भी नेतृत्व करती हैं और ज्यादातर परिवार की आर्थिक जरूरतों की जिम्मेदारी उठाती हैं.
हर जगह औरतें
हालांकि बहुत से पुरुषों के लिए इस मातृसत्तात्मक संरचना का बोझ उठाना मुश्किल हो रहा है. पुरुषों के अधिकार की वकालत करने वाले संगठन सिंगोंग रिमपेई थिमाई (एसआरटी) के पूर्व प्रमुख कीथ पारियात का कहना है, "हर जगह महिलाएं हैं, बाजार में, सरकारी दफ्तरों में."
सिंगोंग रिमपेई थिमाई (एसआरटी) का शाब्दिक अर्थ है, "डगमगाते घर को रोकने के लिए खूंटा." इस संगठन की जड़ें 1960 के दशक में इसी तरह के बने एक संगठन से जुड़ी हैं. तब जानजातीय बुजुर्गों के एक गुट को लगा कि उनके समुदाय के पुरुष बिल्कुल निराश हो गए हैं. इस गुट में डॉक्टर और टीचर भी शामिल थे. पारियात के मुताबिक उन्होंने देखा कि खासियों के सामाजिक रीति रिवाज खासतौर से मातृसत्तात्मक तौर तरीके उन्हें झुका रहे थे. हालांकि पारियत मानते हैं कि यह विश्लेषण महज सैद्धांतिक है.
पुरुषों की मुश्किलें
खासी समुदाय की मातृसत्तात्मक परंपराएं भारत में दूसरी जगहों पर मौजूद पितृसत्तात्मक परंपराओं से बिल्कुल उल्टी हैं. अगर कोई खासी पुरुष किसी परिवार की सबसे छोटी लड़की से शादी करता है तो उसे अपने ससुराल में घरजमाई बन कर परिवार के दूसरे लोगों के साथ रहना पड़ता है. पारियात मानते हैं कि इस वजह से बहुत सारे परिवार अपने बेटों पर ज्यादा पैसा खर्च नहीं करते. वो मानते हैं कि बेटे अपने साथ उनका धन भी बीवी के घर ले कर चले जाएंगे.
पत्नी के घर भी इस आदमी की बहुत हैसियत नहीं रहती क्योंकि उसकी पत्नी के मामा और दूसरे पुरुष रिश्तेदार वहां अपनी चलाते हैं. सिर्फ इतना ही नहीं इस आदमी का अपने बच्चों पर भी कोई अधिकार नहीं होता क्योंकि उन्हें अपनी मां का नाम मिलता है और वो उसी वंश के कहे जाते हैं. अगर वो कभी मुसीबत में हो और किसी मदद की जरूरत पड़े तो वह सिर्फ अपनी बहन के पास जा सकता है जो पारंपरिक रूप से उसके परिवार की संरक्षक है और उसका ख्याल रखना भी उसी की जिम्मेदारी है.
पारियात इस परंपरा से चिढ़ जाते हैं. उनका कहना है, "अगर मुझे कोई समस्या हो तो मेरी सबसे छोटी बहन जिसे पारिवारिक संपत्ति मिली है.. उसका कर्तव्य है कि मेरा ख्याल रखे. अगर मेरी शादी हो गई है और मेरे बच्चे भी हैं लेकिन अचानक मेरी शादी टूट जाए तो क्या मैं चाहूंगा कि वापस जा कर छोटी बहन के साथ अपने पूर्वजों के घर में रहूं." पारियात की बहन ने गैरखासी समुदाय में शादी की है और वो भारत के बाहर रहती हैं. पारियात कहते हैं, "क्या वहां जा कर अपने बहनोई के साथ रहना सहज होगा? मेरा बहनोई भी यह नहीं चाहेगा. यह अव्यवहारिक है."
पुरुषों को ज्यादा अधिकार
हालांकि इतने पर भी खासी पुरुषों के लिए जिम्मेदारी एक अनजान सी बात है. पारियात कहते हैं, "पुरुष ऐसा महसूस करता है कि वह एक आजाद पंछी है, जो अपनी मर्जी से जो चाहे कर सकता है. इससे होता यह है कि वह ड्रग्स, शराब और औरतों के चक्कर में फंस जाता है. वह शादीशुदा है लेकिन फिर भी जब कोई सुंदर लड़की कहीं दिखती है तो वह उसकी ओर चला जाता है, उससे भी बच्चे पैदा करता है और फिर वह उन्हें छोड़ कर जा सकता है क्योंकि बच्चों का ख्याल रखने की जिम्मेदारी तो परिवार की है.
बहुत से पुरुष इसे सपनों की दुनिया मान सकते हैं लेकिन इन सबके नतीजे में खासी महिलाएं अपने समुदाय के पुरुषों को खराब मानने लगी हैं और वो उन्हें छोड़ अपने समुदाय के बाहर के मर्दों से शादी करने लगी हैं. कीथ पारियात की दादी ब्रिटिश थीं. इस कारण खासी समुदाय की सिर्फ जातीय शुद्धता को ही खतरा नहीं है, बल्कि यह उनके जीने के तौर तरीके पर भी खतरा है, जो पहले ही बहुत सारे सांस्कृतिक और आर्थिक हमले झेल रहा है.
वास्तव में खासी संस्कृति और उसके जीने के तरीके को बचाना ही पुरुषों को उनके अधिकार के लिए अभियान चलाने का मकसद बन कर उभरा है. इस समूह में करीब 5,000 पुरुष और 50 महिलाएं हैं. ये लोग विरासत के अधिकार और नियम बदल कर बच्चों के लिए पिता के नाम की मांग कर रहे हैं.
महिला अधिकार का मुखौटा
इस बीच मेघालय में महिला अधिकार कार्यकर्ता खासी समुदाय में इस परंपरा के प्रति अंधभक्ति की आलोचना करते हैं. खासतौर से मातृसत्तात्मक रीति रिवाज और लड़कियों के नेतृत्व को. पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता पैट्रीशिया मुखीम ने एक एकेडमिक पेपर में इसे खासी महिलाओं की राजनीति में कम भागीदारी और उन्हें राजनीतिक विचारधारा से दूर करने का भी जिम्मेदार माना है. खासी समुदाय में ऐसा करना उचित नहीं माना जाता.
महिलाओं को उनके बच्चों का संरक्षक मानने की वजह से ऐसी महिलाओं की संख्या भी काफी ज्यादा है, जो अकेले ही उन्हें पाल रही हैं और सबकी जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष कर रही हैं. आधुनिक जिंदगी ने उनहें पारंपरिक संबंधों से भी दूर कर दिया है.
बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता मेघालय में बलात्कार की बढ़ती घटनाओं की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं जो हैरान करने वाला है क्योंकि इस राज्य में महिलाएं ही प्रमुख हैं. लिंगदोह का कहना है कि खासी महिलाओं के हाथ में सबकुछ नहीं है. उनके पास राजनीतिक या प्रशासनिक अधिकार कभी नहीं रहा, उनकी कोई भूमिका नहीं है. वो सिर्फ महिलाओं को पालने की अधिकारी हैं, वो वंश बना सकती हैं और उसे आगे बढ़ा सकती हैं. शासन पुरुषों के पास है. वे राजनीतिक फैसले करते है और अपने परिवार के भी. महिलाओं की जगह सिर्फ घर के चूल्हे के आसपास है. यही उनकी पारंपरिक भूमिका है."
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