फिर तेज हुआ नागरिकता विधेयक के खिलाफ आंदोलन
१८ नवम्बर २०१९प्रस्तावित विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को बिना किसी वैध कागजात के भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गनाइजेशन (एनईएसओ) ने इस विधेयक के खिलाफ सोमवार को तमाम पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों में प्रदर्शन किया. इससे पहले बीते 15 नवंबर को असम जातीयतावादी युवा छात्र परिषद ने इस विधेयक के समर्थन में प्रदर्शन किया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज्ञापन भेज कर इसे तत्काल रद्द करने की मांग की थी. उधर, मणिपुर के एक संगठन ने 19 नवंबर को इसके विरोध में 18 घंटे बंद की अपील की है. इलाके के ज्यादातर राज्य इस विधेयक का कड़ा विरोध करते रहे हैं.
ताजा विवाद
नागरिकता (संशोधन) विधेयक का मुद्दा इस साल लोकसभा चुनावों के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद उभरा था. तब मोदी को पूर्वोत्तर में कई जगह काले झंडे दिखाए गए और उनके खिलाफ नारेबाजी हुई थी. चुनावों के बाद नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) की अंतिम सूची जारी होने के शोर और विवाद में यह मुद्दा थोड़ा दब गया था. अब संसद के शीतकालीन अधिवेशन के दौरान इस विधेयक को संसद में पेश और पारित कराने के सरकार के फैसले के बाद इलाके में विरोध के स्वर एक बार फिर तेज हो रहे हैं. पूर्वोत्तर के कई संगठनों ने इसके विरोध में बड़े पैमाने पर आंदोलन की धमकी दी है. नौ राजनीतिक दलों के गठजोड़ लेफ्ट डेमोक्रेटिक फोरम ने भी इस विधेयक के विरोध में आज असम में प्रदर्शन किया. फोरम के एक प्रवक्ता कहते हैं, "यह विधेयक सांप्रदायिक और असम विरोधी है. इससे एनआरसी की पूरी कवायद ही बेमतलब हो जाएगी.”
दूसरी ओर, ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (एएएसयू) ने 30 दूसरे संगठनों के साथ मिल कर इस विधेयक के खिलाफ आंदोलन की रणनीति तैयार की है. आसू का कहना है कि इस विधेयक के पारित होने पर असम समझौता भी बेकार हो जाएगा. नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गनाइजेशन ने आज पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में राजभवनों के समक्ष प्रदर्शन किया. एएएसयू के अध्यक्ष दीपंकर कुमार नाथ और महासचिव एल.आर.गोगोई आरोप लगाते हैं, "बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आने वाले तमाम हिंदू बांग्लादेशियों को नागरिकता देने का फैसला कर असम की भाषा, संस्कृति और मूल निवासियों की पहचान को खत्म करने की साजिश रची है.”
उधर, कृषक मुक्ति संग्राम समिति के नेतृत्व में 70 दूसरे संगठनों ने भी सोमवार से विधेयक के खिलाफ घर-घर जाकर प्रचार शुरू कर दिया है. समिति के सलाहकार अखिल गोगोई ने रविवार को गुवाहाटी में पत्रकारों से कहा, "असम में पहले से ही 20 लाख बांग्लादेशी हिंदू रह रहे हैं. उक्त विधेयक के पारित होने की स्थिति में बांग्लादेश से 1.70 करोड़ हिंदुओं के यहां आने का रास्ता साफ हो जाएगा. इसके खिलाफ तमाम संगठनों और राजनीतिक दलों को मिल कर आवाज उठानी चाहिए.”
नार्थ ईस्ट फोरम फार इंडीजीनस पीपुल (एनईएफआईपी) के अध्यक्ष निंग्थाउजा लांचा नागरिकता विधेयक को आत्मघाती करार देते हुए कहते हैं, "इस विधेयक के पारित होने की स्थिति में पूर्वोत्तर की स्थानीय आबादी का वजूद खतरे में पड़ जाएगा.”
असम के अलावा इलाके के दूसरे राज्यों में भी विधेयक का भारी विरोध हो रहा है. मणिपुर पीपुल्स अगेंस्ट सिटीजनशिप (एमेंडमेंट) बिल (एमएएनपीएसी) के बैनर तले अलग अलग संगठनों ने 19 नवंबर को राज्य में 18 घंटे बंद की अपील की है. संगठन ने सोमवार को राजधानी इंफाल में विधेयक के विरोध में रैली निकाली और प्रदर्शन किया.
बीजेपी की दलील
दूसरी ओर, असम के वरिष्ठ बीजेपी नेता और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने नागरिकता विधेयक का बचाव करते हुए कहा है कि इससे राज्य के स्थानीय लोगों के हितों को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. हिमंत का कहना है, "नागरिकता विधेयक से असम के लगभग पांच लाख लोगों की समस्याएं हल हो जाएंगी. इनमें से दो लाख लोग बराक घाटी में रहते हैं. विधेयक का मौजूदा मसविदा इस तरह तैयार किया गया है कि इससे स्थानीय लोगों के हितों पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़े.” लेकिन कृषक मुक्ति संग्राम समिति ने मंत्री के दावे को निराधार करार दिया है. समिति के नेता अखिल गोगोई कहते हैं, "नागरिकता (संशोधन) विधेयक के 2016 और 2019 संस्करणों में मूल प्रावधान जस के तस हैं. बीजेपी नेता इस मुद्दे पर लोगों को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं.”
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि उक्त विधेयक के विरोध में पूर्वोत्तर में आंदोलन की आग तेजी से भड़कने का अंदेशा है. राजनीतिक विश्लेषक जितेन महंत का कहना है, "कुछ महीने शांत रहने के बाद अब इस विधेयक पर आंदोलन की आग तेजी से भड़कने का अंदेशा है. सौ से ज्यादा संगठन इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं या फिर उतरने की तैयारी में हैं. ऐसे में यह विधेयक खासकर पूर्वोत्तर राज्यों की सरकारों के लिए नया सिरदर्द साबित हो सकता है.” इलाके के ज्यादातर राज्यों में बीजेपी की ही सरकार है. कुछ राज्यों में वह स्थानीय दलों के साथ हाथ मिला कर सरकार में शामिल है.
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