बंदी की कगार पर बिजनेस स्कूल
११ सितम्बर २०१२मैनेजमेंट के स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या घट गई है और कई कोर्स बंद होने की कगार पर हैं. रेटिंग एजेंसी क्रिसिल का मानना है कि इस साल के अंत तक भारत में एमबीए की डिग्री देने वाले 140 स्कूल बंद हो जाएंगे. 2006 के बाद से ही इन स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या में गिरावट आने लगी है. 2011-12 के सत्र में तो विद्यार्थियों की संख्या में 15-20 फीसदी तक की गिरावट आई है.
अस्मां इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के अध्यक्ष अंशुल शर्मा कहते हैं, "इस क्षेत्र में जो उछाल आया था वो चला गया. जो लोग इस इंडस्ट्री में पैसा कमाने के लिए निकले थे वो अब इसे छोड़ रहे हैं क्योंकि अब यहां पैसा नहीं है. हर कॉलेज खुद को बचाए रखने के लिए काम कर रहा है."
भारत के सर्वश्रेष्ठ बिजनेस स्कूल की बात छोड़ दी जाए तो दूसरे बिजनेस स्कूलों में पढ़ने वाले केवल 29 फीसदी बच्चे ही पढ़ाई खत्म करने के बाद सीधे नौकरी पाते हैं. बीते चार सालों में और भी गिरावट आई है. साल 2008 में ये आंकड़ा 41 प्रतिशत था. बैंक से लोन लेकर एमबीए की पढ़ाई करने वाले 26 साल के आदित्य दीगे कहते है, "बिजनेस स्कूल अपना प्रचार सैलरी और नौकरी के साथ करते है. जबकि सच्चाई ये है कि जो पढ़ाया जाता है वो पूरी तरह से किताबी होता है. बाहर कार्पोरेट दुनिया में जो योग्यता चाहिए वो हम सीख ही नहीं पाते."
भारत में पढ़ाई लिखाई एक बड़े कारोबार का रूप ले चुकी है. एक अनुमान के मुताबिक 2018 तक यह कारोबार 115 अरब डॉलर का हो जाएगा. विकास की संभावनाओं के बावजूद मैनेजमेंट स्कूल का धंधा नहीं चल रहा है. मैनेजमेंट शिक्षा का गढ़ कहे जाने वाले पुणे जैसे शहर में एक स्कूल खोलने में 4 से 5 करोड़ के बीच खर्चा आता है. इतने पर भी बहुत अच्छी सुविधाओं वाला स्कूल इतने पैसे में नहीं खुल पाता. प्राइसवाटर हाउस कूपर्स के कार्यकारी निदेशक धीरज माथुर कहते हैं,"जिनके पास भी पैसा और जमीन थी उन लोगों ने स्कूल खोल दिया. फैकल्टी, बोर्ड और लोकेशन के बारें में भी नहीं सोचा." इन्ही सब वजहों से उन स्कूलों को भी अपना कोर्स बंद करना पड़ रहा है जो कुछ समय पहले तक अच्छी शिक्षा दिया करते थे.
इस खबर का सबसे खराब पहलू तो ये है कि कुछ मैनेजमेंट स्कूल बच्चों को आकर्षित करने के लिए एजेंट तक रखते हैं. और उन्हे हर बच्चे के हिसाब से 50 हजार तक की फीस देते हैं. कुछ स्कूल ऐसे हैं भी हैं जो बच्चे लाने के बदले में स्कूल में पढ़ रहे बच्चों को भी 40 हजार रुपया तक दे देते हैं. एक तरह से नए नए बच्चों को बहला फुसलाकर स्कूल में दाखिला दिलवाया जाता है. अंशुल शर्मा स्वीकार करते हैं कि इस तरह के काम करने की वजह से शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार हो रहा है.
वीडी/एनआर (रॉयटर्स)