अब बिहार से बाहर नहीं जाना चाहते प्रवासी कामगार
१८ मई २०२०जब लॉकडाउन की पीड़ा को बर्दास्त नहीं कर पाए को तो वे सरकारी घोषणाओं को दरकिनार कर जीवन को दांव पर लगा अपने गांव की उम्मीदों की यात्रा पर निकल पड़े. जो पहुंच गए, अपनी माटी पर खड़े हो अब कह रहे हैं, दस पैसा कम कमाएंगे लेकिन परदेस नहीं जाएंगे. अपनों के पास पहुंचने में जितनी परेशानी, जलालत उन्होंने झेली, उसका दर्द वे इस जन्म में शायद ही भुला पाएंगे. लॉकडाउन में भारत के तमाम राज्यों से श्रमिकों का बिहार लौटना जारी है. यह पलायन मजदूरों - कामगारों पर काफी भारी पड़ रहा है.
दो जून की रोटी की तलाश में अपनों को छोड़ परदेस गए इनलोगों ने कभी सोचा नहीं था कि जिंदगी इतनी भयावह होगी. जैसे ही लॉकडाउन हुआ, जीवन की परिभाषा बदल गई. जहां नौकरी कर रहे थे वहां मालिकों का व्यवहार बदल गया. उन्होंने यों ही मरने को छोड़ दिया. न पैसे दिए और न राशन. जो नौकरीपेशा थे या फिर रोज खाने-कमाने वाले, शहर ठप हो जाने से दो वक्त की रोटी के लिए तरस गए. जो कुछ बचाकर रखा था, राशन-पानी में धीरे-धीरे खत्म होने लगा. जब जीवन पर संकट मंडराने लगा तो इनके समक्ष घर वापसी ही लक्ष्य रह गया.
कोई मुंबई से पैदल तो कोई साइकिल से पुणे से पहुंचा
जब जीवन खतरे में पड़ता दिखाई देता है तो मौत का खौफ कम हो जाता है. शायद इसी कारण देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले इन मजदूरों-कामगारों ने अपने गांव-घर का रुख किया. उन्हें यह पता नहीं था कि कैसे और कब घर पहुंचेंगे. वे तो बस इतना जानते थे कि अपने गांव जाना है. इस पराए शहर में भूखों मरने से बेहतर है, घर जाने के रास्ते में मर जाना. किसी ने साइकिल खरीदी तो किसी ने अपने मित्रों के साथ मिलकर जुगाड़ (मोटरयुक्त रिक्शा) खरीदी तो कोई अपने बीवी-बच्चों समेत पैदल ही निकल पड़ा. बाद में जब श्रमिक ट्रेन चलाई जाने लगी तो जो कुछ पढ़े-लिखे थे उन्होंने सरकारी प्रावधानों के तहत दौड़-धूप कर ट्रेनों में जगह पा ली लेकिन ट्रेन की सवारी के लिए की गई व्यवस्था पर जिन्हें भरोसा न था या फिर काफी प्रयास के बाद भी जिनके लिए नतीजा सिफर रहा वे पैदल ही चल दिए. दिल्ली से करीब 1200 किलोमीटर की दूरी तय कर बेगूसराय जिले के छौड़ाही पहुंचे अमरजीत पासवान कहते हैं, "सुकून है कि घर पहुंच गया. दिल्ली में मजदूरी कर रहा था. जीवन की गाड़ी चल रही थी लेकिन लॉकडाउन के कारण कामकाज बंद हो गया. खाने के लाले पड़ गए. तब पत्नी को फोन किया. जमीन गिरवी रखकर उसने पैसे भेजे. उससे साइकिल खरीदी और किसी तरह घर पहुंचा. अब कमा कर जमीन छुड़ाऊंगा. भले ही दस पैसा कम कमाऊंगा लेकिन अब गांव छोडक़र कहीं नहीं जाऊंगा."
दिल्ली के चांदनी चौक में दिहाड़ी मजदूर का काम करने वाले सहरसा जिले के नवहट्टा के रामप्रवेश कहते हैं, "वहां रहना मुश्किल हो गया था. गांव के ही अपने साथियों के साथ चंदा कर बीस हजार रुपये जुटाए और एक जुगाड़ गाड़ी खरीदी. शुक्र है यहां तक पहुंच गया. अब जो भी करेंगे हम सब यहीं करेंगे." 17 दिनों में पुणे से साइकिल से चलकर नवादा जिले के नरहट पहुंचे रणजीत का दर्द भी कुछ वही है. कहते हैं, "कामकाज ठप, पैसे खत्म. लग रहा था यहां रहा तो मौत तय है. सोचा, भूखे मरने से बेहतर है रास्ते में मर जाऊं. यही सोचकर पुणे से चल दिया." हैदराबाद में रसोइये का काम कर रहे श्रमिक ट्रेन से भागलपुर पहुंचे फिरोज, अनवर व एजाज कहते हैं, "अब घर में सूखी रोटी खाएंगे लेकिन कहीं बाहर नहीं जाएंगे. हैदराबाद की बिरयानी से घर की नमक-रोटी ही बेहतर है." रोहतास जिले के डेहरी प्रखंड निवासी विभाष अपने गांव के कई लोगों के साथ मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में मोजरबियर पावर प्लांट में काम करते थे. लॉकडाउन होते ही कंपनी ने काम से निकाल दिया. खाने के लाले पड़ गए. मकान मालिक ने किराया न मिलने के डर से घर खाली करने को कह दिया. कहते हैं, "लाचार होकर घर लौटने का हमलोगों ने निर्णय किया और साइकिल से यहां आ गए. अब कम कमाएंगे लेकिन घर छोड़ बाहर नहीं जाएंगे."
दिल्ली से पैदल पटना के मोकामा आए उमेश सिंह कहते हैं, "हम रोज कमाने-खाने वाले लोग हैं. वहां कोई काम नहीं रहा तो सोचा, भूखों मरना ही है तो घर क्यों न चले जाएं. भरोसा था कि घर में नमक-रोटी खाने को मिल ही जाएगा, बस किसी तरह अपनों के बीच पहुंच जाएं. यही सोच पैदल ही चला आया." मुंबई से एक महीने में पैदल चलकर दरभंगा पहुंचे रामनिवास चौधरी कहते हैं, "मर जाना पसंद करूंगा लेकिन बिहार के बाहर नहीं जाऊंगा, बाहर का स्वाद हमने अच्छी तरह समझ लिया है. गरीब के लिए किसी को दर्द नहीं है." बेगूसराय की सुषमा की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. दिल्ली में कई घरों में चौका-बर्तन करने वाली सुषमा को जब मकान मालिक ने निकाल दिया तो वह अपने तेरह वर्षीय बेटे के साथ साइकिल से नौ दिन में 1200 किलोमीटर का सफर तय कर अपने पति के पास बेगूसराय के छौड़ाही गांव पहुंची. ऐसे हजारों लोग हैं, जो मानवता के मानकों के उलट अमानवीय ढंग से उस यात्रा पर निकल गए जिसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इनका लौटना अनवरत जारी है.
मालिकों के व्यवहार से हुए अपमानित
ऐसा नहीं है कि समस्या केवल रोज कमाने-खाने वालों को ही हुई. वे लोग भी इससे दो-चार हुए जो किसी न किसी कंपनी या फैक्ट्री में सुपरवाइजर या स्किल्ड होने के कारण अन्य पदों पर काफी दिनों से तैनात थे. ये लोग थोड़े सक्षम थे लेकिन मालिकों के दुर्व्यवहार से अपमानित होकर इनलोगों ने घर का रूख करना ही वाजिब समझा. अहमदाबाद से मोटरसाइकिल से अपने छह साथियों के साथ मुजफ्फरपुर पहुंचे राजीव चौधरी कहते हैं, "वहां एक टेक्सटाइल मिल में हम सब काफी दिनों से काम कर रहे थे. लॉकडाउन होते ही फैक्ट्री मालिक ने हमें तत्काल परिसर खाली करने की हिदायत देते हुए फैक्ट्री के छह माह तक बंद रहने और इस अवधि में काम किए बिना तनख्वाह नहीं देने की बात कही. अपमानित महसूस करते हुए हम सभी ने घर लौटने का निर्णय किया और 2200 किलोमीटर की दूरी तय कर यहां चले आए." केरल से लौटे वैशाली के श्याम सहनी कहते हैं, "हमने रेस्तरां में बतौर चीफ कुक काफी जतन से पांच साल काम किया लेकिन लॉकडाउन होते ही मालिक का व्यवहार बदल गया. कल तक हम उसके लिए प्रापर्टी थे. उसने यह भी नहीं सोचा कि उसे यहां तक लाने में मेरा कितना योगदान है. मैं यहीं चाय-पकौड़े बेच जीवन-यापन कर लूंगा लेकिन वहां नहीं जाऊंगा."
सरकार की व्यवस्था ने भी पग-पग रुलाया
सरकार की व्यवस्था ने भी मजदूरों-कामगारों को पग-पग पर परेशान किया. जो पढ़े-लिखे थे वे घर लौटने के लिए रजिस्ट्रेशन के लिए परेशान रहे. जिन अफसरों के नंबर कोर्डिनेशन के लिए सार्वजनिक किए गए, वे बंद ही रहे और जो किसी तरह श्रमिक ट्रेन में सवार होने में कामयाब रहे उनके अनुभव भी बेहतर नहीं रहे. राजस्थान के जयपुर व कोटा से पटना के दानापुर स्टेशन पहुंचे श्रमिकों के अनुसार उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया गया. कोटा से लाए गए छात्रों को बढिया भोजन दिया गया जबकि उन्हें खराब. कई लोगों ने इसकी शिकायत की और खाना फेंक दिया. कई श्रमिक ट्रेनों में तो रास्ते में खाने को कुछ भी नहीं दिया गया. बिहार सरकार द्वारा तय व्यवस्था के अनुसार विद्यार्थियों से रेल भाड़ा नहीं लिया गया जबकि कामगारों को टिकट खरीदना पड़ा. यह बात दीगर है कि उन्हें क्वारंटीन अवधि पूरा होने के बाद किराये की राशि वापस की जाएगी और पांच सौ रुपये अतिरिक्त भी दिए जाएंगे. बेंगलुरु से श्रमिक स्पेशल से पटना आने वाले गया जिले के कोच निवासी दिनेश महतो कहते हैं, "उनलोगों से 1050 रुपये प्रति व्यक्ति किराया लिया गया. इसमें 930 रुपये का टिकट था और शेष राशि भोजन की थी. बेंगलुरु से ट्रेन खुलने के बाद रेलवे की ओर से रास्ते में बस एक बार भोजन दिया गया. इसके बाद दानापुर में ही भोजन मिला. थोड़ी परेशानी तो हुई लेकिन घर पहुंचने की खुशी के आगे यह कुछ भी नहीं है. अब यहां अगर कुछ न कर सका तभी फिर लौटने की सोचूंगा."
दो जून की रोटी का जुगाड़ अहम सवाल
घोर अनिश्चितता के बीच जिस अमानवीय कष्ट को उठाकर प्रवासी मजदूर-कामगार अपने गांव की दहलीज तक पहुंचे हैं, उससे तो लगता है कि वे अब शायद ही बाहर का रुख करना चाहेंगे. लेकिन राजधानी पटना के एएन सिन्हा इंस्टीच्यूट के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. डीएन प्रसाद इससे इत्तफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, "यह संक्रमणकाल है. प्रवासियों के ये उद्गार भावनात्मक हैं. लॉकडाउन के कारण अप्रत्याशित स्थिति बन भी आई है. इस परिस्थिति में उन्हें न तो नैतिक और न ही आर्थिक सपोर्ट मिल रहा है. संकट के समय में भावनात्मक शक्ति प्रबल होती है जो सामूहिकता का बोध दिलाती है. इसलिए इंसान अपने लोगों के बीच जाना चाहता है ताकि उसकी मानसिक व भावनात्मक जरूरतें पूरी हो सके." डॉ. प्रसाद कहते हैं, "अभी जो कुछ दिख रहा वह परिस्थितिजन्य है. जैसे ही इमोशनल ब्रेकडाउन होगा वैसे ही यथार्थ का बोध होगा. संक्रमणकाल खत्म होते ही बदलाव आना तय है."
एक स्थानीय पत्रकार कहते हैं, "प्रवासी मजदूरों को रोजगार नहीं, खाने का जरिया नहीं और सरकार पर भरोसा नहीं. जैसे हालात ने उन्हें जिस तरह सबकुछ दांव पर लगाकर सड़कें नापने को विवश किया ठीक उसी तरह की परिस्थिति अगर यहां भी बनेगी तो उलटे पांव उन्हें लौटने में देर नहीं लगेगी." अनुमान के मुताबिक पांच लाख से ज्यादा स्किल्ड व नन स्किल्ड कामगार लौटने वाले हैं. जो बाहर मजदूरी कर रहा था, थो वो सरकारी या गैर सरकारी काम में मजदूरी कर लेगा लेकिन स्किल्ड लोगों का क्या होगा. किसी राज्य सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि देश के कितने कामगार बिना रोजगार कितने दिनों तक जीवन-यापन कर सकते हैं. कैसे भूल सकते हैं कि सहरसा स्टेशन पर तीन-तीन दिन इंतजार करने के बाद रोजी की तलाश में महानगरों का रूख करने वालों को किसी ट्रेन में जगह मिलती थी. पलायन और रोजगार के अवसर में तो कहीं सामंजस्य है ही नहीं.
वाकई, सब कुछ रोजी-रोजगार के अवसर सृजित होने पर ही निर्भर करेगा. अपार कष्ट झेलकर अपने गांव पहुंचे ये कामगार जब क्वारंटीन अवधि पूरी कर अपनों के बीच होंगे तो उन्हें सुकून तो जरूर मिलेगा. लेकिन उनका सुकून कितना दीर्घकालिक होगा, कहना मुश्किल है. बिहार तो वैसे भी पिछड़ा प्रदेश है जो सस्ते श्रमिकों के लिए जाना तो जाता है लेकिन राज्य सरकार की भरपूर कोशिश के बावजूद किसी बड़े निवेशक ने इस राज्य का रुख नहीं किया और न ही यहां कोई औद्योगिक नगरी बन सकी है जहां स्किल्ड मजदूरों को काम मिले.
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