कोरोना संकट के बीच मैर्केल पर क्यों टिकी हैं सबकी निगाहें?
२७ अप्रैल २०२०नेता जब दोबारा चुनाव लड़ने की हालत में ना रहे या ऐसा ना करना चाहे तो उस अवधि में अंग्रेजी में उसे "लेम डक" कहा जाता है. उसके राजनीतिक करियर को खत्म मान लिया जाता है और आलोचक उन्हें कमजोर और प्रभावहीन घोषित कर देते हैं. पिछले कुछ सालों में राजनीतिक आलोचकों ने कई बार अंगेला मैर्केल को "लेम डक" की श्रेणी में डाला है. 2017 के चुनावों में उनकी सीडीयू पार्टी के बुरे प्रदर्शन के बाद, फिर 2018 में उनके पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देने के बाद और फिर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी फ्रीडरिष मैर्त्स की खुद को बेहतर नेता सिद्ध करने की कोशिशों के बाद. दो साल पहले मैर्केल के सबसे करीबी भी उम्मीद कर रहे थे कि 2019 में कभी ना कभी वे इस्तीफा दे देंगी. लेकिन वे आज भी बनी हुई हैं.
इस वक्त मैर्केल अपनी सफलता के उस पड़ाव पर हैं जहां वे कई सालों से नहीं रही हैं - राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर. इस्राएल के सरकारी टीवी चैनल कान के संवाददाता अमिचाई श्टाइन ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "यहां का मीडिया मैर्केल को दुनिया के सबसे मजबूत नेताओं में से एक मानता है. मैर्केल को एक ऐसे नेता के रूप में देखा जाता है जो जनता को स्थिति के बारे में बखूबी बता सकती हैं और उसे साफ साफ समझा भी सकती हैं."
दुनिया भर के अखबारों और सोशल मीडिया में इन दिनों इसी तरह की बातें छप रही हैं. मार्च में द न्यूजीलैंड हेराल्ड ने उनके बारे में एक लेख छापा जिसका शीर्षक था, "सत्ता से दूर हो रही हैं लेकिन संकट की इस घड़ी में भी चमक रही हैं जर्मनी की नेता." इसी तरह अप्रैल में अर्जेंटीना के सबसे जाने माने अखबार क्लैरिन में भी चांसलर मैर्केल की तारीफों से भरा लेख छपा. लेखक रिकार्डो रोआ ने लिखा कि 15 सालों तक सत्ता के शीर्ष पर रहने के बाद भी मैर्केल एक "सामान्य व्यक्ति" सा बर्ताव करती हैं.
रोआ के अनुसार इस संकट की घड़ी में मैर्केल "दुनिया के उन चुनिंदा नेताओं में से एक हैं जो खुद को बचाने की जगह नेतृत्व करने में लगी हैं, "वे वैज्ञानिक तर्क के साथ संवाद करती हैं. वे शांति से संवाद करती हैं और कुतर्क को खत्म कर देती हैं." उनकी वजह से तो स्पेनिश में एक नया शब्द ही रच दिया गया है, "मैर्केलीना" जिसका मतलब है नेतृत्व करने का उनका वह तरीका जिससे वे समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करती हैं, न कि उन समस्याओं का राजनीतिक फायदा उठाने की.
15 सालों बाद जर्मन लोग इस तरह की सुन सुन कर थक चुके हैं क्योंकि दरअसल यह मैर्केल के राजनीतिक संघर्ष को नहीं, बल्कि संकट से निपटने की उनकी निपुणता को दर्शाती हैं. लेकिन दुनिया भर में हो रही यह तारीफ यह भी दर्शाती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के नेतृत्व की कितनी कमी है.
इसी तरह की आवाजें अमेरिका में भी सुनी जा सकती हैं. द अटलांटिक, फोर्ब्स और द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबारों में मैर्केल की प्रशंसा और ट्रंप की आलोचना वाले कई लेख मिल जाएंगे. ऐसी ही खबरें लंदन से भी आ रही हैं जहां एक पत्रकार ने बताया कि लगभग हर प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान यह सवाल उठाया जाता है कि डाउनिंग स्ट्रीट जर्मनी की मिसाल ले कर क्यों काम नहीं कर रहा है.
जर्मनी में हुए ताजा शोध दिखाते हैं कि जिस तरह से मैर्केल इस महामारी से निपट रही हैं, उसके चलते देश में उनकी रेटिंग काफी बढ़ी है. मीडिया उन्हें एक बेहतरीन क्राइसिस मैनेजर के रूप में पेश कर रहा है. चारों तरफ से मिल रहे इस सम्मान के पीछे आखिर क्या है? मैर्केल की सीडीयू पार्टी के सदस्य आंद्रेयास निक का कहना है कि जर्मन लोग पिछले 15 सालों से जिस तरह मैर्केल को देख रहे हैं, उसकी तुलना में अंतरराष्ट्रीय समीक्षक और दूसरे देशों की संसद में काम करने वाले "मैर्केल के फैसले लेने के अनोखे तरीकों और नेतृत्व करने के स्टाइल को अधिक स्पष्टता से देखते हैं."
मैर्केल की सफलता के लिए आंद्रेयास निक तीन कारण देखते हैं: पहला है उनका समस्या से निपटने का तरीका जो कि "व्यावहारिक और लक्ष्य पर केंद्रित होता है. वे विश्लेषणात्मक रूप से समस्या की जांच करती हैं और बहुत ध्यान से समाधान खोजती हैं." दूसरा है उनका एक प्रशिक्षित वैज्ञानिक होना और तीसरा उनका महिला होना.
निक मैर्केल की ही पार्टी के हैं. जाहिर है, वे तो उनकी तारीफ करेंगे ही. लेकिन इसी तरह के जवाब विपक्ष से भी मिलते हैं. लेफ्ट पार्टी के बोडो रामेलोव पिछले हफ्तों में मैर्केल के साथ कई बैठकें कर चुके हैं. वे थ्यूरिंजिया राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं. उनका कहना है कि चांसलर के कदम लक्ष्यों पर निर्धारित होते हैं और बहुत शांति से लिए जाते हैं, "ऐसा उनकी बेहतरीन वीडियो और फोन कॉन्फ्रेंस से भी पता चलता है और इससे पेचीदा बहस में भी निश्चिंतता का अहसास होता है."
हाल ही में मैर्केल ने लॉकडाउन नियमों में ढील देने पर राज्यों की कड़े शब्दों में आलोचना की. इस पर रामेलोव का कहना है, "ऐसे वक्त में हमें मिल कर काम करने की जरूरत है." उनका कहना है कि इस वक्त राजनीति खतरे को खत्म करने और लोगों की मदद के लिए ठोस कदम लेने पर केंद्रित होनी चाहिए. उन्होंने यह कहा कि संकट की इस घड़ी में वे "एक शांत स्वभाव वाली महिला वैज्ञानिक" को राजनीति के शीर्ष पर देखना चाहेंगे, बजाय किसी ऐसे पॉपुलिस्ट पुरुष के जो खतरे को नजरअंदाज कर दे.
इस पूरे संकट के दौरान मैर्केल को कभी भी सार्वजनिक रूप से मास्क लगाए नहीं देखा गया. क्योंकि मैर्केल तो मैर्केल हैं. हालांकि इस वक्त उन्हें जिस तरह वैज्ञानिक की भूमिका में देखा जा रहा है, इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह स्थिति का आकलन करती हैं, प्रमाण जमा करती हैं और बहुत शांति से उसका विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ती हैं. मैर्केल की ये बातें अकसर जर्मन लोगों को उबाऊ लगती हैं.
अगर कोरोना संकट ना हुआ होता तो इस वक्त मैर्केल की सीडीयू पार्टी ने अपना नया पार्टी अध्यक्ष चुन लिया होता. और इसके बाद विश्लेषक मैर्केल के दिन गिनने में लग गए होते. लेकिन अब लगता है कि नया अध्यक्ष दिसंबर तक नहीं चुना जा सकेगा. और उससे पहले एक बड़ा बदलाव आएगा. 1 जुलाई से मैर्केल अगले छह महीनों के लिए यूरोपीय परिषद की अध्यक्षता संभालने जा रही हैं. साल भर पहले सीडीयू के नेता इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि जर्मनी के पास यह मौका आने से पहले ही क्या मैर्केल की जगह कोई और ले चुका होगा. लेकिन अब जब यह जिम्मेदारी मैर्केल के पास आएगी, तो किसी को इससे आपत्ति नहीं होगी.
मैर्केल को ले कर उठ रहे इस उत्साह के बीच यह सवाल अब भी बरकरार है कि आगे क्या होगा. जगह जगह अटकलें भी लगने लगी हैं. ब्रिटेन के संडे टाइम्स ने तो मैर्केल के साथ बवेरिया राज्य के मुख्यमंत्री मार्कुस जोएडर की तस्वीर छापते हुए उन्हें इस दौड़ में दावेदार भी घोषित कर दिया. तेल अवीव के अमिचाई श्टाइन का भी कहना है कि इस वक्त मैर्केल में "दुनिया की दिलचस्पी की एक बड़ी वजह यह भी है कि कोई नहीं जानता कि उनकी जगह कौन लेगा." और इस सवाल का जवाब तो बहुत जल्द नहीं मिलने वाला है.
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